पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
58. युद्ध में अश्व परिचर्या
महाराज युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण का प्रभातकाल स्वागत किया। उनसे बोले- ‘जनार्दन ! आप ही इस संकट-समुद्र में हमारे कर्णधार हैं। यदुवंश शिरोमणि ! हम आपके रक्षणीय हैं। देवदेव पुरुषोत्तम ! आपको प्रणाम ! आप ही हम सबके रक्षक हैं।' श्रीकृष्ण ने आश्वासन दिया- ‘आप चिन्ता मत करें। अर्जुन आज जयद्रथ को मारकर ही आपके शिविर में लौटेंगे। त्रिभुवन की समस्त शक्ति मिलकर भी आज सव्यसाची शरों से सिन्धुराज को बचा नहीं सकेगी। उसे आज यमपुरी जाना पड़ेगा।' अर्जुन ने वहाँ आकर बड़े भाई को प्रणाम करके उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। श्रीकृष्ण के साथ फिर अपने शिविर में लौटे। शीघ्र ही नन्दिघोष रथ आज की विजय यात्रा पर चल पड़ा। युधिष्ठिर तथा सेना की रक्षा का भार भीमसेन एवं सात्यकि पर छोड़ दिया गया। श्रीकृष्ण के सारथ्य में अकेले अर्जुन को व्यूह में प्रवेश करना था। श्रीकृष्ण साथ हों तो शुभ शकुन स्वत: आगे आवेंगे। अपशकुनों का अनवरत क्रम तो उनको मिलता है जो उन कमल लोचन के प्रतिपक्ष में होते हैं। अर्जुन की यात्रा अनेक शकुनों का स्वागत लेती चली। दुर्धर्षण की गजसेना आगे आकर मर मिटी। दु:शासन को भागकर प्राण बचाने पड़े। द्रोणाचार्य से उस दिन युद्ध अनावश्यक था। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आचार्य से उलझने नहीं दिया। सावधान कर दिया- 'आचार्य से उलझकर अधिक समय नष्ट मत करो। इनको एक ओर छोड़कर ही आज आगे बढ़ो।' आते ही अर्जुन ने व्यूह के मुखभाग पर स्थित आचार्य को श्रीकृष्ण की सम्मति से प्रणाम करके कहा था- 'आप मुझे आशीर्वाद दें। मेरी कल्याण कामना करें। आप मुझे अपने पुत्र अश्वत्थामा के समान समझें। आपकी कृपा से ही मैं इस व्यूह में प्रवेश पाना चाहता हूँ। द्रोणाचार्य ने कहाँ इन बातों में आने वाले थे। उन्होंने कह दिया- ‘मुझे पराजित किये बिना व्यूह में प्रवेश करके जयद्रथ तक पहुँचना असम्भव है।' युद्ध आरम्भ हो गया किन्तु श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सावधान करके रथ एक ओर हाँक दिया। द्रोणाचार्य ने पुकारा- 'पाण्डुनन्दन, युद्ध में शत्रु को पराजित किये बिना तो तुम हटते नहीं। आज इस प्रकार कहाँ जा रहे हो?' हँसकर अर्जुन ने सिर आचार्य की ओर करके हाथ जोड़े- ‘आप मेरे शत्रु नहीं, सम्मान्य हैं। आपको भला कौन पराजित कर सकता है।' द्रोणाचार्य देखते रह गये। वे यदि व्यूह-द्वारा त्यागकर हटते हैं तो सात्यकि, भीमसेन आदि दूसरे महारथियों को कोई रोक नहीं सकेगा। तब व्यूह ही नष्ट हो जायगा। अत: वे ही खड़े रहने को विवश थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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