पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
40. दुर्योधन की दुराभिसन्धि
दुर्योधन सभा से उठकर अपने मन्त्रियों के पास चला गया था। वहाँ शकुनि, कर्ण, दु:शासन के साथ उसने सलाह की - 'यह कृष्ण राजा धृतराष्ट्र तथा भीष्म के साथ मिलकर हमें बन्दी करना चाहते हैं। हम लोग पहिले ही बलपूर्वक इन्हें बन्दी बना लें। वासुदेव को बन्दी हुआ सुनकर पाण्डवों का पूरा उत्साह पानी के छींटे से दूध के उबाल के समान बैठ जायेगा। वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो जायेंगे।' कर्ण ने कहा - 'राजन ! कार्य बहुत कठिन है। लेकिन आप जो उचित समझें, मैं उसमें पूरी शक्ति से आपके साथ हूँ।' सात्यकि संकेत से ही दूसरों का भाव समझ जाते थे। वे सभा से उठे और बाहर आकर कृतवर्मा से बोले - 'तुम स्वयं कवच धारण करके अपनी सेना सहित सभा के द्वार पर आ जाओ और सेना को व्यूह बद्ध खड़ा करो। मैं श्रीकृष्णचन्द्र को तब तक सूचना देता हूँ।' कृतवर्मा ने सिंह गर्जना किया - 'कौरवों को एक अक्षौहिणी सेना पाण्डवों के साथ युद्ध में सहायता के लिए दी गयी है किन्तु यदि वे श्रीद्वारिकाधीश पर हाथ उठाते हैं तो हम प्राण देकर भी उस उठने वाले हाथ को काट देंगे।' सात्यकि के नेत्र अंगार हो रहे थे- 'अकेले चक्रपाणि पुरुषोत्तम समस्त सुरासुर के लिए अजेय हैं और यहाँ तो उनके साथ तुम हो, मैं हूँ तथा हमारे और भी सहायक हैं। यादव वीरों का शौर्य इन दूराभिमानियों ने देखा नहीं है।' कृतवर्मा ने शीघ्रतापूर्वक सेना सज्जित की। सात्यकि ने सभा में जाकर धीरे से भगवान वासुदेव को दुर्योधन के दुर्विचार की सूचना दी। इसके पश्चात राजा धृतराष्ट्र से बोले - 'राजन ! दूत को बन्दी बनाना सत्पुरुष धर्म, अर्थ और काम के भी विरुद्ध मानते हैं किन्तु आपके मूर्ख पुत्र वही कुमन्त्रणा कर रहे हैं। ये मूर्ख मरने के लिए इतने उतावले हैं कि श्रीकृष्ण को बन्दी करने का कुविचार इन्हें सरल लगता है। अब इस प्रयत्न में ये मारे जायँ तो अपराध इनका ही होगा।' विदुर ने चेतावनी दी - 'राजन ! आपके सभी पुत्र क्या आज ही यमपुर पहुँचने को उत्सुक हैं? श्रीकृष्ण का तिरस्कार करके उन्हें बन्दी बनाने जाकर तो वे वैसे ही नष्ट हो जायँगे जैसे पतंग अग्नि में पड़कर भस्म हो जाते हैं।' धृतराष्ट्र भय से काँप उठे जब उन्होंने सुना कि सात्यकि को प्रलंयकर का महास्त्र पाशुपत प्राप्त है और वे इस समय उसका प्रयोग करें तो कोई उसे अधर्म नहीं कहेगा। श्रीकृष्ण के चक्र का ही किसी के पास क्या प्रतिकार है? श्रीकृष्णचन्द्र ने बैठे-बैठे ही शान्त स्वर में कहा - 'राजन ! यह तो देखना है कि आपके पुत्र मुझे बन्दी बनाते हैं या मैं उन्हें बाँध लेता हूँ। मैं अब यदि आपके सब पुत्रों को उनके अनुयायियों सहित बाँधकर पाण्डवों को सौंप दूँ तो मेरा यह कार्य अनुचित तो नहीं होगा?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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