पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
38. केले के छिलके
श्यामसुन्दर कल आवेंगे, यह समाचार जब से मिला, विदुर पत्नी व्यस्त हो गयी थीं। वे यहाँ हस्तिनापुर आयेंगे तो इसी घर में आयेंगे, यह कुछ कहने, सोचने की बात नहीं थी। इसमें कहीं किञ्चित भी सन्देह नहीं था। अत: पूरे घर को स्वच्छ करना था, सजाना था और श्रीकृष्ण की रुचि के पर्दाथ प्रस्तुत रखने थे। प्रात: वे वासुदेव नगर में आ गये। सब नगरवासी उनका दर्शन करने भागे; किन्तु जो सर्वथा अपने हैं उनका कहीं ऐसे दर्शन भीड़ में किया जाता है। वे तो आयेंगे और सम्मुख बैठ जायेंगे तब भर आँख उन्हें देखना है।
विदुर पत्नी को अवकाश नहीं था। उन्हें बहुत काम था। उनके घर वासुदेव आने वाले थे और उनके स्वागत की सब साज-सज्जा स्वयं अपने ही हाथों तो की जानी चाहिए। यह काम ऐसा कहाँ है कि इसे दूसरों पर छोड़ा जाय। 'वे आगये। अब धृतराष्ट्र से मिलते होंगे। भीष्म को प्रणाम करते होंगे। मेरे स्वामी उन्हें लेकर आने ही वाले होंगे।' विदुर पत्नी का मन तन्मय था। उन्होंने किसी प्रकार स्वागत की सामग्री की सजायी और स्नान करने बैठीं। अपना शरीर भी तो स्वच्छ होना चाहिए। यह पुकार - प्राणी के प्राणों को जब अनन्त जन्मों के अनन्तर किसी धन्य क्षण में यह पुकार सुनायी पड़ती है -वैसे वे तो पुकारते ही रहते हैं किन्तु बर्हिमुख जीव जगत के शब्द सुनने में लगा है तो अन्तर्यामी का आह्वान उसके श्रवण सुन कैसे सकते हैं। कभी जब वह पुकार सुन पड़ती है, शरीर का स्मरण रह सकता है ? वह तो सुन ही तब पड़ता है जब जीव शरीर से, मन से, बुद्धि से भी ऊपर उठकर उन सात्वत शिरोमणि के श्रीचरणों के स्मरण में एकात्म हो जाता है। महाभागा विदुर-पत्नी ने सुन वह पुकार और उठकर भागीं द्वार की ओर। अब यह किसे स्मरण रहे कि वे स्नान कर रही थीं। शरीर पर कोई उत्तरीय नहीं था। 'श्रीकृष्ण आ गये।' यह केवल स्मरण रहा। दौड़कर द्वार खोला तो उन मयूरमुकुटी ने अपना पीतपट झट उतारकर विदुर-पत्नी के ऊपर डाल दिया। यह स्थूल सूक्ष्म कारण शरीर जीव का मायिक आवरण है। अपनी ओर से डाला गया अविद्या का आवरण। यह उसे जनार्दन से पृथक करता है, दूर बनाये रहता है; किन्तु जब इस अविद्या के आवरण को उनकी स्मृति उतार देती है, इसका विस्मरण हो जाता है तो वे आते हैं और उनका पीतपट, यह तो उनका दिया हुआ दिव्यावरण है। यह दिव्यदेह, उनकी सेवा के उपयुक्त इसको लेकर ही हुआ जाता है और तब स्मृति तो इसकी भी नहीं होती। तब तो बाहर भीतर वे सच्चिदानन्द ही रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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