पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
56. सचिन्त श्रीकृष्ण
अभिमन्यु के मारे जाने का समाचार उपप्लव्य शिविर में भी पहुँचा और वहाँ से सुभद्रा, द्रौपदी, उत्तरा आदि स्त्रियाँ रोती हुई पाण्डव शिविर में आ गयी थीं। अर्जुन स्वयं इतने शोक कातर थे कि वे अपने शिविर में क्रन्दन करती उन महिलाओं के समीप जाने का भी साहस अपने में नहीं पाते थे। उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा- 'माधव ! आप ही अपनी बहिन सुभद्रा और वधू उत्तरा को समझाइये।' सुभद्रा जीवन में प्रथम बार शोकार्त हुई थीं। उन महनीया ने समस्त विपरीत परिस्थितियों को, बड़ी से बड़ी विपत्ति को अपने भाई का मंगल विधान ही माना था और उसमें सदा सुप्रसन्न रही थीं किन्तु उनका मातृत्व आज उन्हें उन्मथित कर रहा था। वे कातर क्रन्दन कर रही थीं। अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा- वह बेचारी बालिका। अभिमन्यु ही सोलह वर्ष के हुए थे इस समय और वह तो उनसे छोटी थी दो वर्ष। अभी इसी वर्ष युद्धारम्भ से कुछ मास पूर्व विराटनगर में पिताने उसका विवाह सम्पन्न किया था। विवाह में लगी मेंहदी की ललाई भी हाथों से नहीं छूटी और वह विधवा हो गयी। उसका क्षण-क्षण पर मूर्च्छित होना ! सुभद्रा से पुत्र वधू की यह व्यथा कैसे सही जाय। उत्तरा ने सुनते ही सहमरण का निश्चय कर लिया था किन्तु भगवान व्यास आ पहुँचे थे उपप्लव्य शिविर में उसी समय। उन्होंने द्रौपदी को बुलाकर कह दिया- 'उत्तरा अन्तर्वत्नी है। उसके गर्भ में जो अभिमन्यु का अंश है, वही कुरुवंश का बीज बनेगा। अतः उत्तरा को सती होने की आज्ञा शास्त्र नहीं देता। उसे समझाओ।' उत्तरा का सती होने का आवेश सुनते ही समाप्त हो गया और अब वह शोक-विह्वल बालिका ! उसे कैसे कोई समझावे। श्रीकृष्ण सर्वसमर्थ हैं। वे जहाँ सुमनसे भी सुकुमार हृदय हैं, वहाँ वज्र से भी निष्ठुर भी हैं। इन्हें जहाँ भक्त का तनिक-सा भी भय-कम्पन व्याकुल कर देता है, उसके समीप से भी विपत्ति की छाया निकल जाय, यह स्वीकार नहीं होता, वहीं इन्हें किसी के भी मरण का शोक-स्पर्श नहीं करता। इनका संकल्प जहाँ असंख्य ब्रह्माण्डों का सृजन करता है, वही संहार का महाताण्डव भी करता हैै। सुभद्रा देखते ही भाई के चरणों पर गिरकर फूट पड़ी- 'भैया ! तुम्हारे रहते यह क्या हो गया ?' श्रीकृष्ण रोये नहीं। कोई दिखावा नहीं किया। स्वस्थ स्वर में बोले- 'बहिन ! तुम भी इतनी व्याकुल होती हो ? तुम वीर जननी हो। जानती हो कि अमर कोई रह नहीं सकता। अभिमन्यु वृद्ध होकर रोग-शय्यापर मरता तो कोई लाभ था ? वह क्षत्रिय के लिए परम अभीष्ट गति को पा सका। असंख्य योद्धाओं का संहार करके, कौरव दल के महारथियों का मानमर्दन करके, सम्मुख समर में मरकर सूर्य-मण्डल भेदन कर योगियों को प्राप्त होने वाली दुर्लभ गति से परम पद को प्राप्त हुआ। यह अवसर योद्धा के जीवन में तो बार-बार नहीं आता।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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