पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
13. इन्द्र का वरदान
देव, दानव, दैत्य, मानव, भूत-प्रेतादि में केवल स्थूल शरीर का और उसके कारण शक्ति का अन्तर है। मानव शरीर पृथ्वी तत्व प्रधान है तो देव शरीर अग्नि तत्व प्रधान तथा प्रेतादि के शरीर वायु प्रधान हैं किन्तु सबके शरीर एक जैसे हैं। अत: सबके मन बुद्धि की स्थिति मनुष्यों जैसी ही है। उनमें मनुष्यों समान ही सात्त्विक, तामसादि व्यक्तित्व हैं और वैसे ही मनोवेग, आवेशादि होते हैं। व्यक्ति जब आवेश में होता है, उसकी विचार शक्ति कुण्ठित हो जाती है। वह उस समय अपना हानि-लाभ भी समझ नहीं पाता। देवराज इन्द्र भी आवेश में थे जब खाण्डव वन जल रहा था। उस समय अपने मित्र तक्षक तथा खाण्डव की रक्षा के अतिरिक्त उन्हें दूसरा कुछ सूझता नहीं था। लेकिन जब उनका प्रयत्न व्यर्थ हो गया और देवगुरु तथा उनके पिता महर्षि कश्यप ने उन्हें डांट दिया, तब स्वर्ग जाकर उनका विवेक सावधान हुआ। उन्हें लगा कि वे अपनी और सुरों की महती हानि पर उतर आये थे। अर्जुन इन्द्र के पुत्र ही थे और इन्द्र के बहुत प्रिय भी थे। उसी अर्जुन से उन्होंने विरोध कर लिया। श्रीकृष्ण जिसका समर्थन करें, उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता, यह वात शक्र की समझ में ठीक-ठीक आ गयी। यह सब तो हुआ; किन्तु एक समस्या उठ खड़ी हुई। वह समस्या थे दानवेन्द्र मय। देवाधिप जानते थे कि मायावियों के परमाचार्य भगवान् शंकर के अनन्य आराधक हैं, अमर हैं और उमा-महेश्वर वात्सल्य प्राप्त हैं उन्हें। अब वे श्रीकृष्ण से भी अमरत्व प्राप्त कर चुके हैं और उनके ही समीप हैं। सदा के सुरों के इस अमित पराक्रम शत्रु ने यदि कहीं मधुसूदन का समर्थन प्राप्त कर लिया और तब अमरावती पर आक्रमण किया तो सुरों के लिए भागकर भी कहीं शरण लेने को स्थान नहीं रहेगा। श्रीकृष्ण और अर्जुन को रुष्ट करके कितना बड़ा अनर्थ आमन्त्रित कर लिया गया है, यह बात अब इन्द्र की समझ में आयी। उन्हें एक ही उपाय सूझ पड़ा कि जितनी शीघ्रता संभव हो, उन जनार्दन को संतुष्ट कर लिया जाना चाहिए। |
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