पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
27. वन में मिलन
दुर्योधन और उसके साथी बहुत खीझ गये थे। धृतराष्ट्र ने उनके सब किये कराये पर पानी फेर दिया। पाण्डव वहाँ से चल पड़े थे। दुर्योधन ने पिता को किसी प्रकार फिर पाण्डवों को बुलाने के लिए प्रस्तुत किया। वे बुलाये गये। ‘एक दाव और’ यह अन्तिम जुआ भी युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र की आज्ञा मानकर खेला और हार गये। इसके अनुसार पाण्डवों को द्रौपदी के साथ बारह वर्ष वन में रहना था और एक वर्ष अज्ञातवास करना था। उस अज्ञातवास के वर्ष में पता लग जाय तो फिर से बारह वर्ष का वनवास। देवी कुन्ती को विदुर ने आग्रहपूर्वक रोक लिया। वे हस्तिनापुर में रह गयीं। पांचाली तथा अपने पूरे परिवार के साथ पाण्डव वन के लिए चले तो बहुत से ब्राह्मण और प्रजा के भी बहुत से लोग उनके प्रेमवश घर द्वारा छोड़कर उनके साथ हो गये। इतने लोग साथ हो गये तो उनके आहार की समस्या उपस्थित हुई। कुल पुरोहित महर्षि धौम्य के आदेश से युधिष्ठर ने भगवान भास्कर की आराधना की। सुप्रसन्न सूर्य ने उन्हें एक पात्र देकर कहा –‘इसमें जो कुछ रन्धन होगा वह द्रौपदी के भोजन करने तक अक्षय रहेगा।’ वन्य बीज, कंद, शाक, फल सब मिलाकर जो भी मिल जाता उस पात्र में द्रौपदी उबाल लेती और उससे सबकी उदर-पूर्ति हो जाती। वन में कोई स्वादिष्ट आहार की आशा कर नहीं सकता था। दिन-रात में एक बार का यह आहार सबके लिए पर्याप्त सन्तोषप्रद था। काम्यक वन में प्रवेश करने के मार्ग में ही भीमसेन ने मार्गा विरोध करके आक्रमण करने वाले राक्षस किमींर को मार दिया था। इस प्रकार पाण्डवों के राज्यच्यत होकर वन में चले जाने का समाचार मिला तो उनके सम्बन्धी यादव, पंचाल के युवराज धृष्टद्युम्न, चेदिदेश के नरेश शिशुपाल के पुत्र धृष्टकेतु, कैकय नरेश आदि सब मिलाकर बहुत दु:खी होकर द्वारिका पहुँचे और वहाँ से श्रीकृष्ण को अग्रणी बनाकर उनके साथ काम्यक वन में पाण्डवों के पास आये। सब कौरवों से बहुत रुष्ट थे और कुछ करना चाहते थे किन्तु युधिष्ठिर की सम्मति के बिना कुछ भी करना उचित नहीं था। सब काम्यक वन में आये। अअववसरोचित मिलन, सत्कार के पश्चात सब वहाँ युधिष्ठिर के चारों ओर बैठ गये। श्रीकृष्णचन्द्र बोले – ‘अब यह निश्चित हो गया कि धरा दुरात्मा दुर्योधन, कर्ण, शकुनि, दु:शासन का रक्तपान करना चाहती है। जो मनुष्य किसी को धोखा देकर सुख-भोग कर रहा हो उसे मार डालना सनातन धर्म है। अत: हम लोग एकत्र होकर कौरवों तथा उनके सहायकों को युद्ध में मार डालें और धर्मराज का सिंहासन पर अभिषेक करें।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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