पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
26. वस्त्रावतार
द्वारिका में श्रीकृष्ण सहसा ध्यानस्थ हो गये थे। उन सर्वरूप, सर्वात्मा को वस्त्रावतार लेते क्या देर लगनी थी। रजस्वला नारी का वस्त्र किन्तु उन सर्वव्यापक के लिए भी कुछ पवित्र अपवित्र होता है ? दु:शासन वस्त्र खींच रहा था। वह द्रौपदी की साड़ी खींचने में लगा था। साड़ी सरलता से खिंच नहीं रही थी। दु:शासन को बल लगाना पड़ रहा था और साड़ी थी कि उसका अन्त ही नहीं आ रहा था। रंग-बिरंगे वस्त्र उस साड़ी से निकलते जा रहे थे। वस्त्रों का अम्बार लग गया वहाँ। दु:शासन का शरीर स्वेद से लथपथ हो गया। उसकी भुजाएँ थककर चूर हो गयीं। वह साड़ी छोड़कर लज्जित होकर बैठ गया। दुर्योधन तथा उसके साथी चकित रह गये। विदुर ने धृतराष्ट्र को यह घटना सुनाकर कहा – ‘राजन ! द्रुपदपुत्री तन्मय होकर श्रीकृष्ण को पुकार रही है यह आप सुन ही रहे हैं। उन अखिलेश्वर का संकल्प उसकी साड़ी में उतर आया है। जब तक वे जनार्दन क्रुद्ध होकर चक्र उठाये प्रकट नहीं हो जाते अथवा पांचाली ही आपके पुत्रों को शाप नहीं देती तभी तक अवसर है कि अपनी इस पुत्रवधू को आप प्रसन्न कर लें अन्यथा अनर्थ होने में अब अधिक विलम्ब मुझे नही लगता है।’ धृतराष्ट्र डर गये। वस्त्र बढ़ता जा रहा हैं यह देखकर उनके सब पुत्र स्तम्भित हो उठे थे। द्रौपदी का शरीर तनिक भी अनावृत नहीं हुआ था। कोई आर्त होकर पुरुषोत्तम को पुकारे और उसकी विपत्ति बची रहे, यह कैसे संभव है। धृतराष्ट्र ने द्रौपदी को पुकारा, तब वह सावधान हुई। धृतराष्ट्र ने कहा – ‘ बेटी ! तुम जो हुआ उसे भूल जाओ और वरदान माँग लो।’ वरदान के रुप में धृतराष्ट्र ने द्रौपदी तथा पाण्डवों को दासत्व से मुक्त कर दिया। उनका राज्यकोष लौटा दिया। यह एक प्रकार से द्रौपदी के प्रति किये गये अपराध का परिमार्जन था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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