पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
14. मय का सभा निर्माण
दानवेन्द्र ने प्रसन्न होकर कहा- ‘जनार्दन ! आपने मुझे अनुग्रहित किया। मैं अपनी बुद्धि, शक्ति, सामर्थ्य के अनुसार सेवा करने का पूरा प्रयत्न करूँगा।’
अब आवश्यक हो गया कि महाराज युधिष्ठिर से अनुमति ले ली जाय और दानवेन्द्र मय का उनसे परिचय करा दिया जाय। अत: मय को लेकर श्रीकृष्ण और अर्जुन इन्द्रप्रस्थ आ गये। युधिष्ठिर ने दानवेन्द्र का परिचय पाकर उनका यथोचित सत्कार किया। उसे सचमुच स्थानान्तरित करने की आवश्यकता होगी, इसे सर्वज्ञ श्रीकृष्णचन्द्र भले जानते हों, अवश्य ही दानवेन्द्र ने भी अनुमान कर लिया होगा; क्योंकि महाभारत युद्ध के पश्चात् पाण्डव राज्य की राजधानी इन्द्रप्रस्थ से हस्तिनापुर आयी तो राज्यसभा वहाँ स्थानान्तरित करनी पड़ी और पाण्डवों के स्वर्गारोहण के पश्चात् उसके रक्षक राक्षस उसे कहाँ ले गये, कुछ पता नहीं। द्यूत-सभा में पाण्डवों के पराजित होकर वन में चले जाने पर भी वह सभा कौरवों के लिए अदृश्य ही हो गयी थी। उसके रक्षक उसे कहीं अगम्य स्थान पर उठा ले गये थे। शुभ-मुहूर्त में मंगल–अनुष्ठान प्रारम्भ हुए। ब्राह्मणों को भोजन कराके दक्षिणा तथा गाऐं दी गयीं। तब मय ने दस सहस्त्र हाथ लम्बी और इतनी ही चौड़ी भूमि सभा निर्माण के लिए खाण्डव दाह से परिपूत भूमि पर चिन्हांकित किया। उस समय युधिष्ठिर अपने सब भाइयों तथा श्रीकृष्णचन्द्र के साथ उपस्थित थे और ब्राह्मण स्वस्तिपाठ कर रहे थे। सभा-निर्माण का स्थान रेखांकित हो जाने पर उसका शिलान्यास करके श्रीकृष्णचन्द्र ने धर्मराज से अनुमति ली। उनको इन्द्रप्रस्थ आये पूरा एक वर्ष हो चुका था। और यहाँ वे अर्जुन के साथ यमुना तट पर विचरण करते हुए सूर्य तन्या कालिन्दी को प्राप्त कर चुके थे।[1] उनके साथ विधिवत विवाह द्वारिका में करना था। प्रस्थान के लिए सम्पूर्ण मंगल कृत्य किये गये। पाण्डवों ने बहुत अनिच्छापूर्वक श्रीद्वारिकाधीश को विदा किया। अत्यन्त अभीष्ट सुहृदयों से पार्थक्य बहुत पीड़ा देता है; किन्तु परिस्थिति सदा साथ भी तो नहीं रहने देती। प्राणी के पास इस विवशता का कोई उपाय नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इनकी प्राप्ति कथा ‘श्रीद्वारिकाधीश’ में गयी है।
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