पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
13. इन्द्र का वरदान
देवराज बोले- ‘आप दोनों ने खाण्डव को अग्नि की भेंट करने का जो कार्य किया है, वह देवताओं के लिए भी दुष्कर था। मैं आपके इस पौरुष से प्रसन्न हूँ। आप दोनों मुनष्यों के लिए दुर्लभ जो भी वरदान चाहें, मुझसे माँग लें।’ इन्द्र ने कहा- ‘अर्जुन ! तुम्हें देवाधिदेव महादेव को अपने तप से संतुष्ट करना है। मैं जानता हूँ कि वह समय कब आवेगा। उस समय मैं तुम्हें अपने सब अस्त्र दे दूँगा। दूसरे सुरों के अस्त्र भी तुम उसी प्रकार प्राप्त कर लोगे।’ वरदान भक्त को ही नहीं चाहिए, भगवान् को भी चाहिए और वही वरदान चाहिए जो भक्त को अत्यन्त अभीष्ट होता है। भक्त को भगवान् की अखण्ड अनपायिनी भक्ति चाहिए तो भगवान् को भी भक्त की अनुक्षण वर्धमान प्रीति उतनी ही प्रिय है। श्रीकृष्णचन्द्र ने वरदान माँगा- ‘देवेन्द्र ! आप मुझे यह वरदान दें कि मेरी और अर्जुन की मित्रता कभी शिथिल न हो। वह क्षण-क्षण बढ़ती रहे।’ ‘एवमस्तु’ कहकर सुप्रसन्न इन्द्र सुरों के साथ विदा हुए। ऐसे वरदान का एक अर्थ है- जिस विषय का अधिदेवता है, उस विषय में ही वरदान सहायक होगा। जैसे इन्द्र कर्म–हाथ के देवता हैं तो कर्म मात्र- श्रीकृष्ण की मैत्री के साथ सानुकूल होंगे। |
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