पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
20. राजसूय-यज्ञ
भीष्मजी ने कहा- ‘भगवान् ! दूसरा कोई इस कार्य को कर भी नहीं सकता। अनेक प्रदेशों के विविध भाषा-भाषी ब्राह्मण आयेंगे। वे देववाणी अवश्य बोलेंगे, समझते है किन्तु उनकी अपनी भाषा में उनका स्वागत उन्हें प्रिय होगा और उनकी रुचि के अनुसार उनके आवास-आहार की व्यवस्था होनी चाहिए। आप ब्रह्मण्यदेव ही यह ठीक-ठीक कर सकते हैं। अत: आगत ब्राह्मणों से प्रथम मिलन आपका ही उचित है।’ श्रीकृष्णचन्द्र ने अब सबको चौंका दिया- मैं ही उन विप्रों की उच्छिष्ट पत्तलें भी उठाऊंगा।’ ब्राह्मणों को उनकी रुचि का आहार मिला और उन्होंने तृप्त होकर भोजन किया, यह देखना भी आवश्यक था। उनको क्या अधिक प्रिय है, यह अनुमान भी पत्तल उठाने में किया जा सकता है, और भोजन व्यवस्थापक को उसके अनुसार संकेत दिया जा सकता है। यह सूक्ष्म बात श्रीकृष्णचन्द्र के ध्यान में थी। त्यागी, तपस्वी, संतोषी ब्राह्मणों से कुछ पूछकर जानने का प्रयत्न पूरा सफल नहीं हो सकता था। वे कुछ विशेष बतलाने वाले नहीं थे। अत: यह सेवा उन सर्वेश ने स्वयं स्वीकार की। जो सबके स्वामी हैं, सबके आराध्य हैं, सबके ही द्वारा सम्मान पाने योग्य हैं जिनकी इसी यज्ञ में सर्वप्रथम पूजा होनी है, जिनकी आराधना के लिए ही यज्ञमान ने यज्ञा आरम्भ किया उन निखिल लोक महेश्वर, सर्वात्मा, सर्वरूप, सर्वाधार के लिए कोई भी कार्य हेय अथवा अपमान का हेतु हो नहीं सकता था। यह ब्राह्मणों का पाद-प्रक्षालन और उनका उच्छिष्ट उठाना श्रीकृष्ण की महानता तथा सूक्ष्म दष्टि का ही परिचायक था। वे नहीं चाहते थे कि युधिष्ठिर के यज्ञ में आये एक भी ब्राह्मण की किञ्चित भी उपेक्षा हो अथवा उसे अपनी रुचि के आहार की प्राप्ति में तनिक भी संकोच करना पड़े। जहाँ सर्वसमर्थ सर्वज्ञ सर्वेश्वर श्रीकृष्णचन्द्र इतने सतर्क, सन्नद्ध हों वहाँ यज्ञ की शोभा, सम्पन्नता निर्विघ्न पूर्णता में तो कोई सन्देह रह नहीं सकता। आगत नरेशों तथा श्रेष्ठी वैश्यों में जैसे स्पर्धा लगी थी। उनमें- से प्रत्येक चाहता था कि उसी के धन से यज्ञ सम्पन्न हो। प्रत्येक अपने सर्वस्व अर्पण को उत्सुक था और इसका पूरा प्रयत्न कर रहा था कि अधिक-से-अधिक देने का उसे अवसर मिले। दुर्योधन उपहार लेते-लेते थक जा रहा था। बार-बार उसके सहायक लोगों को रोक देते थे- ‘बस ! अब आपसे और नहीं लिया जायगा।’ लोग तो बार-बार आ जाते थे। उन्हें पहिचानना कठिन था कि वे पहिले भेंट दे चुके हैं। यज्ञशाला में भगवान् हव्यवाह को हस्ति-शुण्डाकार अखण्ड धृताहुति प्राप्त हो रही थी और हविष्य की राशि-राशि आहुति मिल रही थी। गगन और दिशाऐं सुगन्धित धूम्र से ढक गयी थीं। मन्त्र पाठ की ध्वनि तथा जन कोलाहल के कारण परस्पर बात बहुत निकट आकर लोगों को कहनी पड़ती थी। देवता मूर्तिमान होकर अपने आसनों पर आसीन थे। वे अपना भाग स्वयं स्वीकार कर रहे थे। धर्मराज के यज्ञ में सोमपान करके सुर आकण्ठ तृप्त हो गये। पत्नियों के साथ पाण्डवों ने ऋष्यादि पूजन से लेकर बर्हि-हवन तक यज्ञ की सम्पूर्ण विधि श्रद्धापूर्वक सम्पन्न की। साक्षात् यज्ञपुरुष श्रीकृष्ण की सन्निधि में, सञ्चालन में ऐसा यज्ञ सृष्टि ने पहिली बार देखा। इससे विशाल यज्ञ हुए थे किन्तु यह सम्पूर्णता अपूर्व थी। |
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