पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
19. बन्दी-मुक्ति
नरेशों को स्नानादि करने के लिए सेविकाऐं तथा सेवक लगा दिये गये। उनको उपमर्दन के द्वारा स्वच्छ करके उष्णोदक से स्नान कराया। उत्तम वस्त्र, रतनाभरण, अंगराग, चन्दन आदि से सत्कृत करके भोजन कराया। राजाओं को इसका पता नहीं लगने दिया गया कि उस रात मगध के लोगों ने, सहदेव और श्रीकृष्णचन्द्र के साथ भीमसेन और अर्जुन ने भी उपवास किया था। प्रात: स्नानादि के पश्चात् राजाओं को पुन: भोजन करा के रथ तथा धन देकर उनके राज्यों के लिए श्रीकृष्णचन्द्र ने विदा किया। सहदेव ने उन्हें उपहार दिये और फिर क्षमा-याचना की। सबने सहदेव को अपनी मैत्री का आश्वासन दिया। मन्त्री, पुरोहित श्रीकृष्णचन्द्र की आज्ञा से बुलाये गये। श्रीकृष्णचन्द्र ने मगध के राजसिंहासन पर अपने करों से सहदेव को बैठाकर उनका तिलक किया। राज्याभिषेक हो जाने पर सहदेव ने जो बहुत अधिक उपहार अर्पित किये, उन्हें श्रीकृष्णचन्द्र ने सहदेव को[1]प्रसन्न करने के लिए स्वीकार कर लिया। श्रीकृष्णचन्द्र ने सहदेव से विदा लेते समय कहा- ‘अब तुम पिता की उत्तर क्रिया सम्पन्न करो। वे महामानव थे और अब तो मुक्त हो गये। धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में आना। दुर्जन नरेशों की संगति से दूर रहना।’ भीमसेन तथा अर्जुन को मगधराज के उसी दिव्य रथ में बैठाकर श्रीकृष्णचन्द्र इन्द्रप्रस्थ के लिए प्रस्थित हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इनका एक नाम जयत्सेन भी था।
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