पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
19. बन्दी-मुक्ति
सृष्टि ने कम ऐसे भगवद्भक्त देखे हैं। पिता का शव पड़ा था मल्लशाला में और उन्हें मारने वालों का स्वागत करने सहदेव तत्काल चल पड़े। उन्हें पता लग गया था कि जरासन्ध का रथ लेकर श्रीकृष्णचन्द्र उसमें अर्जुन और भीमसेन को बैठाकर नगर से निकले हैं और बन्द्रीगृह की ओर गये हैं। सहदेव ने कहा- ‘वे मधुसूदन उन बंदी नरेशों को मुक्त करने करने ही गये हैं। वे भवपाश छेत्ता-शरणागत को त्राण देना उनका स्वाभाव ही है।’ पिता की मृत्यु का शोक नहीं, रोष नहीं और उसके लिए कोई भी प्रतिक्रिया नहीं। पिता के शव का क्या होगा यह सोचा तक नहीं। ब्राह्मणों को बुलवाया, वाद्य लिये और अर्पण के लिए मगध के राजकोष के दुर्लभतम रत्नोपहार साथ लिये। सेवकों ने जलती मशालें लीं, सहदेव पैदल चल पड़े कारागार की ओर स्वागत करने। ‘भगवान् वासुदेव की जय !’ तुमुल नाद निकट आता गया। श्रीकृष्णचन्द्र नरेशों के समीप से इस आते जनसमूह की ओर बढ़े। सहदेव ने उपहार राशि सेवकों को अर्पित करने का संकेत किया और स्वयं भूमि पर गिरा- ‘जरासन्ध-तनय सहदेव परम पुरुष पुरुषोत्तम के चरणों में प्रणिपात करता है।’ लगभग दौड़कर श्रीकृष्णचन्द्र ने उठाया सहदेव को और हृदय से लगा लिया। उनके कमल दृगों के बिन्दु राजकुमार की अलकों को आर्द्र करने लगे- ‘सहदेव ! मेरे बच्चे !’ उनके अभय कर देर तक सहदेव का सिर और पीठ सहलाते रहे। ‘मगध धन्य हो गया और धन्य कर दिया आपने मगधेश्वर को !’ सहदेव देर में बोल सके और भरे कण्ठ से ही बोले- ‘आपने मुझ जैसे अबोध अल्पज्ञ को भी पुत्र कहकर कृतार्थ कर दिया। अब मगध का राजसदन श्रीचरणों से पवित्र करें और अपनी आज्ञा पालन का सौभाग्य भी मुझे दें।’ श्रीकृष्णचन्द्र ने वहीं अपने हाथ से सहदेव के मस्तक पर मुकुट रख दिया और कहा- ‘पहिला काम है कि पिता के शरीर की उत्तम क्रिया की व्यवस्था करो और इन नरेशों को स्नानादि कराके राजोचित वस्त्राभूषण से अलंकृत कराओ। इन्होंने बहुत दिनों तक कारागार का कष्ट उठाया है। इनकी सेवा को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। सहदेव ने हाथ जोड़कर नरेशों से पिता के अपराध के लिए क्षमा मांगी तो सबके नेत्र भर आये। उन सबका स्नेह उमड़ उठा युवराज सहदेव के प्रति। वहाँ से सब राजसदन पैदल ही आये। बहुत आग्रह करने पर भी श्रीकृष्णचन्द्र ने रथ पर बैठना स्वीकार नहीं किया। |
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