पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
16. राजसूय यज्ञ का प्रस्ताव
‘जरासन्ध के भय से उत्तर देशों के बहुत-से नरेश राज्य त्याग कर भाग गये हैं। इनमें अठारह अधिपति तो भोज परिवार के ही है। दक्षिण पांचाल, पूर्व कौशल आदि अनेक प्रदेशों के शासकों ने भी यही मार्ग अपनाया; क्योंकि युद्ध में सामना करने वाले छियासी राजाओं को लाकर वह गिरिव्रज में बन्दी बना चुका है। सुना है कि बन्दी राजाओं की संख्या सौ हो जाने पर उसकी बलि देकर वह नरमेध यज्ञ करने वाला है। इन नरेशों को जो भी मुक्त करके जीवन-दान देगा, उसे बहुत बड़ा यश प्राप्त होगा और वह सरलता से सम्राट पद प्राप्त कर सकेगा। कंस ने असुरों से मित्रता कर ली थी और यदुवंशियों का शत्रु हो गया था, अत: मुझे उसे मारना पड़ा; किन्तु कंस जरासन्ध का समबल प्रतिद्वन्द्वी था। जरासन्ध ने अपनी पुत्रियों का विवाह करके कंस को जामाता बना लिया था। कंस जरासन्ध के शक्ति विस्तार पर अंकुश था। उसके मारे जाने से अब मगधराज का बल बहुत बढ़ गया है। ‘आप जानते ही हैं कि जरासन्ध ने मथुरा पर अठारह बार आक्रमण किया है। उसका सैन्य बल इतना बढ़ गया था कि हम दोनों भाई बहुत अधिक वर्ष निरन्तर संहार में लगे रहते तो भी वह समाप्त नहीं होती। इससे विवश होकर मुझे समुद्र में शरण लेनी पड़ी। शरणागत वत्सल अनन्त करुणा सागर को बन्दी नरेशों की विस्मृति संभव नहीं थी। वे इन्द्रप्रस्थ भी आये थे तो उनकी मुक्ति का विधान करने ही और उसी कार्य को उन्होंने प्राथमिकता दी। लेकिन युधिष्ठिर इस विवरण से विचलित हो उठे। उन्होंने कहा- भगवन् ! जरासन्ध से मुझे भी शंका है। मैं नहीं जानता कि आप, श्रीबलरामजी, भीमसेन अथवा अर्जुन- से कोई उसे मार सकता है या नहीं। अत: आप ही बतलावें कि क्या किया जाना चाहिए।’ भीमसेन ने सोत्साह कहा- ‘श्रीकृष्णचन्द्र में नीति है, मुझमें बल है, अर्जुन में कौशल है। अत: हम तीनों मिलकर जरासन्ध वध का काम पूरा कर लेंगे। आप हमें अनुमति दें।’ यह प्रस्ताव आवेगा, इसकी सम्भावना युधिष्ठिर को नहीं थी। उन्होंने तत्काल इसे अस्वीकार कर दिया- ‘भाई ! भीमसेन तुम और अर्जुन मेरे दोनों नेत्र हो और ये वासुदेव मेरे हृदय हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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