पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
16. राजसूय यज्ञ का प्रस्ताव
मैं अपने नेत्रों और हृदय को खोकर जीवन धारण को उत्सुक नहीं हूँ। मैंने सोच लिया कि यह यज्ञ का संकल्प छोड़ देना चाहिए। मुझे तो अब इसके संकल्प से ही ठेस लगती है।’ बड़े भाई की यह कातरता धनञ्जय से सही नहीं गयी। वे सम्मुख आये और भूमि में मस्तक रखकर प्रणाम करके बोले- ‘आर्य ! अस्त्र-शस्त्र, पराक्रम, सहायक, भूमि, सुयश, सेना और सम्मत्ति बड़ी कठिनता से किसी को एक साथ मिलती हैं। यह सब हम लोगों को प्राप्त हैं। राजसूय यज्ञ तो निमित्त बनेगा जरासन्ध-वध तथा बन्दी नरेशों की मुक्ति का। इस निमित्त से उन्हें प्राणदान हम दे सकें, इससे बड़ा धर्म हमारे लिए क्या होगा।’ श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा-‘राजन ! सबको ही कभी न कभी मरना है। अमर तो कोई है नहीं। अत: दूसरों को जीवनदान देने के कार्य में हम क्यों हिचकें ? यह तो ऐसा कार्य है कि इसमें सफलता मान् विजय दिलावेगी और विफल भी हो गये तो पारलौकिक कल्याण सुनिश्चित होता है। अत: आप प्रसन्न मन से हमें आज्ञा दें। जरासन्ध मानधनी है। ललकारने पर वह हममें से किसी से भी द्वन्द्व युद्ध करने को प्रस्तुत हो जायगा। उसे पराजित करने का यही उपाय है। धर्मराज युधिष्ठिर के नेत्र भर आये। वे बोले- ‘जनार्दन ! आपका भक्त वात्सल्य है कि आप मुझसे अनुमति मांगते हैं; अन्यथा आप सर्वेश्वर को आज्ञा कौन दे सकता है। हम तो आपके सेवक, आज्ञानुवर्ती आश्रित हैं। आपकी इच्छा को, आपके संकल्प को अन्यथा कौन कर सकता है। मैं तो समझता हूँ कि उन बन्दी नरेशों के कातर प्राण आपको पुकार रहे हैं और जरासन्ध अब जीवित भी मृतक के समान है। आपके आश्रितों को अवरुद्ध करके वह कितने समय जीवित रह सकता है। अत: आपकी जो इच्छा हो, आप वैसा करें। अर्जुन, भीमसेन तो आपका आदेश पालन करेंगे ही, मुझे भी आप जो आज्ञा देंगे, मैं उसको स्वीकार करूँगा। |
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