पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
11. माया-दर्शन
भीमसेन ने आग्रह किया- ‘तुम्हें तो देखता ही रहा हूँ। तुम्हारी माया देखने का मन है, उसे भी दिखला दो।’ अब उन मधुसूदन ने कह दिया- ‘अच्छा कल रात्रि के प्रथम प्रहर में ही आकर उस वट वृक्ष पर आकर छिपकर बैठ जाना और सावधान रहकर देखना। दोनों वहाँ से राजभवन चले आये। रात्रि अभी शेष थी; किन्तु अब निद्रा लेने का समय नहीं था। दोनों ब्रह्म मुहूर्त में कृत्यों में लग गये। श्रीकृष्णचन्द्र ने जिस वट वृक्ष का संकेत किया था, वह वन में मध्य में था। उसके आस-पास दूर तक वृक्ष-लताऐं नहीं थीं। वहाँ समतल भूमि थी। रात्रि के प्रथम प्रहर में ही भीमसेन अकेले आये और उस वृक्ष पर चढ़कर सघन स्थान पर जमकर बैठ गये। चन्द्रमा ऊपर उठा। वन चन्द्रिका स्नात सुरम्य हो गया। वन-पशुओं का रात्रि-सञ्चरण प्रारम्भ ही हुआ था कि अनेक तेजोमय देवता आये और वहाँ स्थान स्वच्छ करने लगे। उन लोगों ने वहाँ स्वच्छता की, सुगन्धित द्रव छिड़का और बहुमूल्य आस्तरण बिछाया। इसके अनन्तर बहुत से दूसरे देवता सिंहासन लेकर आने लगे। उन लोगों ने सिंहासनों की पंक्तियां सजा दीं। एक ज्योर्तिमय दिव्य सिंहासन– जैसे कोई राजधिराज आने वाला हो। उसके समीप ही किंचित निम्न भूमि पर उससे कुछ कम ज्योर्तिमय सिंहासन। इसके अनन्तर दो-दो सिंहासनों के तीन जोड़े और फिर तो सिंहासनों की पंक्तियां लगी थीं। अवश्य देवताओं की कोई सभा आज यहाँ होने वाली थी। देवता, गन्धर्व, किन्नर आदि सबके प्रमुख आ गये। असुर, दैत्य, दानवों का अग्रणी वर्ग भी अपने समाज के साथ आया और वह भी बैठ गया। उनमें से बहुत थोड़े लोगों को भीमसेन पहचान सके। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज