पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
11. माया-दर्शन
भीमसेन कीर्तन करने लगे और तन्मय हो गये। दु:खी, उदास, खिन्नमना भीमसेन का चित्त शीघ्र एकाग्र हो गया। नेत्र बन्द हो गये और अश्रु झरने लगे। शरीर रोमाञ्चित हुआ। कण्ठ गदगद् हुआ तो और भी भारी हो गया। संगीत का स्वर या वीणा की झंकृति मधुर सुनकर मृग समीप दौड़ आते होंगे; किन्तु वह भीमसेन की कीर्तन ध्वनि सुनकर तो मृग ही क्या मृगराज भी घबड़ाकर जंगल में और दूर भाग गया। लेकिन एक था- इन्द्रप्रस्थ में ही था जो इस कीर्तन ध्वनि से भी मुग्ध हुआ और राजसदन से उठकर उसी रात्रि में वहाँ भीमसेन के समीप आ गया। वह है ही ऐसा कि उसे स्वर-ताल आदि कोई बाह्य उपकरण प्रसन्न नहीं करते। उसके श्रवण सुर-बेसुर नहीं पहिचानते। वह केवल प्रेम का स्वर समझता है। प्रेम की भाषा समझता है। प्रेम का स्वाद जानता है। भीमसेन का स्वर चाहे जितना भयानक हो, वे प्रेम में मग्न होकर कीर्तन कर रहे थे और उस प्रेम धन के लिए निद्रा लेना ऐसी अवस्था में सम्भव नहीं था। वह आकर्षित होकर आ गया था। भीमसेन कीर्तन करने में जितने तन्मय थे, वह उस कीर्तन के स्वर पर उतनी तन्मयता से झूम रहा था। और उसके विशाल दृगों से बिन्दु गिर रहे थे। उसका शरीर भी रोमाञ्चित था। वह बहुत धीरे ताली बजाने लगा था। भीमसेन की तन्मयता टूटी। कीर्तन समाप्त हुआ। नेत्र खुले तो सम्मुख देखकर आश्चर्य से बोले- ‘श्रीकृष्ण, तुम ! इस समय यहाँ !’
श्रीकृष्णचन्द्र ने भी अपने पटुके से नेत्र पोंछे और बोले- ‘भाई भीमसेन ! इतना मनोहर कीर्तन तुम करते हो, मैं नहीं जानता था। आज तुमने मुझे बहुत आनन्द दिया। मैं प्रसन्न हूँ। तुम्हारे मन में जो आवे, वरदान माँग लो।’ भीमसेन को पहले तो एक क्षण को लगा कि कहीं उनका उपहास तो श्रीकृष्ण नहीं कर रहे हैं; किन्तु उन कमल लोचन ने अश्रु पोंछे हैं अपने, यह देखकर आश्वस्त हो गये। उनका कीर्तन इन्हें प्रिय है, इन गोविन्द को प्रिय है तो अब पूरे संसार को अप्रिय लगे तो लगता रहे। आनन्द से हृदय परिपूर्ण हो गया। अब कहाँ कोई कामना शेष रही कि कुछ माँग ले।’ दो क्षण सोचकर भीम ने कहा- ‘ये ऋषि मुनि बार-बार तुम्हारी माया की बात करते हैं। कैसी है तुम्हारी माया ? मैं उस माया को देखना चाहता हूँ।’ श्रीकृष्ण में उत्साह नहीं आया। वह शान्त स्वर में बोले- ‘भैया मुझे देखो ! माया को देखकर क्या करोगे।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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