पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
47. गीतोपदेश
जब यह दृष्टि प्राप्त हो जाती है कि गुणों के अतिरिक्त कोई कर्ता नहीं है तब पुरुष गुणातीत होकर मेरे भाव को प्राप्त कर लेता है। देह से उत्पन्न गीतोपदेश जन्म-मृत्यु जरा आदि दुखों से विमुक्त होकर अमृतत्त्व उसे प्राप्त होता है जो तीनों गुणों से अतीत हो चुका है। अर्जुन ने पूछा- 'गुणातीत कैसे हुआ जाता है ? वह कैसे रहता है ? उसके चिन्ह क्या है ?' भगवान ने बतलाया - प्रकाश, प्रवृति या मोह में-से कोई आवे, रहे या चला जाय- इन सबसे उदासीन जो स्थित है, गुणों से जो विचलित नहीं होता, सुख-दु:ख में समान रहता है, लोहा-सोना-पत्थर जिसे समान है, प्रिय-अप्रिय, निन्दा-स्तुति, मान-अपमान, मित्र-शत्रु सबके प्रति जो समान है, घोर है, तथा अपनी ओर से जो कोई आरम्भ नहीं करता, वह गुणातीत कहा जाता है। अव्यभिचारी भक्तियोग से मेरी उपासना करता है वह इन गुणों को पार करके ब्रह्मीभूत हो जाता है क्योंकि अमृत, अव्यय, शाश्वत ब्रह्म की, धर्म की तथा ऐकान्तिक सुख की मैं ही प्रतिष्ठा- आधार हूँ। यह संसार वृक्ष ऊर्ध्वमूल, अध:शाख अव्यय है। वेद इसके पत्ते हैं। यह त्रिगुणों से बढ़ा है। कर्म के द्वारा ही इसका विस्तार बढ़ा है। इसका कोई सुनिश्चित रूप नहीं है। यह अनादि, अनन्त है किन्तु परिवर्तनशील है। इस अतिशय दृढ़ मूल अशवत्थ को अनासक्ति के शस्त्र से काटकर उस पद का अन्वेषण करना चाहिए जहाँ जाकर फिर संसार में आना नहीं पड़ता। वह आदिपुरुष है और उसी से यह सब प्रवृति अनादिकाल से फैली है। मान, मोह तथा आसक्ति त्यागकर, कामनाओं से रहित सदा अध्यात्म में स्थित, सुख-दु:ख के द्वन्द्व से मुक्त ज्ञानी पुरुष उस अविनाशी पद को प्राप्त करते हैं। वह स्वयं प्रकाश पद मेरा परमधाम है, जहाँ जाकर फिर लौटना नहीं पड़ता। जीव मेरा ही सनातन अंश है। पाँच ज्ञानेन्द्रिय एवं मन ये इसे प्रकृति में खींचकर लगाते हैं। इनको साथ लेकर ही यह एक शरीर से दूसरे में जाता है। इन इन्द्रियों का आश्रय लेकर ही यह विषयों का उपभोग करता है। शरीर से निकलते या शरीर में स्थित गुणों के साथ भोग-भोगते अज्ञानी इसे नहीं देख पाते किन्तु ज्ञान से देखा जा सकता है। योगी इसे प्रयत्न करके अपने में स्थित देख लेते हैं किन्तु प्रयत्न करके भी असंयत चित्त इसे नहीं देख सकते। सूर्य, चन्द्र, अग्नि, आदि में मेरा ही प्रकाश है। मैं ही सबका प्रकाशक, धारक एवं पोषक हूँ। सबके हृदय में मैं अन्तर्यामी रूप से स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति भी होती है। सब वेदों के द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ और वेदों को मैं ही जानता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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