पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
47. गीतोपदेश
संसार में दो पुरुष हैं - क्षर तथा अक्षर। इनमें क्षर विनाशी सब प्राणी हैं और इनमें जो कूटस्थ रूप से स्थित है, वह अक्षर है। मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ। जो असमूढ़ मुझे ऐसा पुरुषोत्तम जान लेता है, वही सर्वविद है और सर्वभाव से मेरा भजन करता है। दैवी सम्पत्ति के सद्गुण तथा आसुरी सम्पत्ति का वर्णन करके आसुरी सम्पत्तिवान के लक्षण भगवान ने बतलाये। अन्त में कह दिया कि आसुरी सम्पत्ति वाले मूर्ख बार-बार आसुरी योनियों में जन्म लेते हैं। मुझे प्राप्त न करके अन्त में अधोगति को ही प्राप्त करते हैं। काम, क्रोध और लोभ ये तीनों तमोद्वार हैं। इन तीनों को छोड़ देने पर ही मनुष्य अपने कल्याण का उपाय करके परमगति पा सकता है। भगवान ने शास्त्रीय विधि का त्याग करके कर्म करने वाले को सिद्धि, सुख तथा परमगति नहीं मिलती, यह कहा तो अर्जुन ने पूछ लिया - 'जो शास्त्र-विधि का तो पालन नहीं करते किन्तु श्रद्धापूर्वक यजन करते हैं, वे सात्त्विक, राजस या तामस कौन-सी गति पाते हैं ?' इसके उत्तर में भगवान ने सात्त्विक, राजस, तामस श्रद्धा का वर्णन किया। इसी क्रम में त्रिविध आहार, त्रिविध कर्ता, तीन प्रकार के भेदयुक्त यज्ञ, तप, दान का वर्णन किया। अर्जुन ने सन्यास तथा त्याग का तत्त्व जानना चाहा। भगवान ने बतलाया कि काम्य कर्मों का त्याग सन्यास है और सर्व कर्म फल का त्याग त्याग कहा गया है। यज्ञ, दान तथा तप का त्याग नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि ये बुद्धिमान व्यक्ति को पवित्र करने वाले हैं। इसी विवरण में सात्त्विक, राजस, तामस त्याग का वर्णन करके कहा कि देहधारी समस्त कर्मो का स्वरूपत: त्याग कर ही नहीं सकता अत: कर्मफल का त्याग ही श्रेष्ठ है। शरीर, मन तथा वाणी से उचित, अनुचित जो भी कर्म होता है उसमें पाँच कारण होते हैं - अधिष्ठान देह, कर्ता, इन्द्रियाँ, चेष्ठा और प्रारब्ध। इसमें जो -केवल अपने को ही हेतु मानता है वह अज्ञानी है, दुबुद्धि है। जिसमें 'मैंने किया' यह कर्तृत्वाभिमान नहीं है और बुद्धि कर्म से लिप्त नहीं होती, वह समस्त लोकों का वध कर दे तो भी हत्या का दोषी नहीं होता। सात्त्विक राजस, तामस कर्ता तीनों प्रकार के कर्म, त्रिविध बुद्धि, त्रिविध धुति, त्रिविध सुख का वर्णन करके श्रीकृष्ण ने चारों वर्णों के सहज स्वभाव का वर्णन किया। अन्त में कहा - अपने-अपने स्वभाव विहित कर्म में लगकर ही मनुष्य अन्त:करण को शुद्ध कर पाता है। अपने स्वधर्माचरण से ही ईश्वरार्चन उचित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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