पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
47. गीतोपदेश
इस शरीर में ही जीव के कर्मों का उपदृष्टा, अनुमोदक, उसका पालक, भोक्ता, सर्वसमर्थ संचालक, परमात्मा कहा गया है। वह जीव से परे है। इस प्रकार जो पुरुष को तथा गुणों के साथ प्रकृति को जान लेता है वह सर्वथा व्यवहार करता हुआ भी फिर जन्म नहीं लेता। कुछ लोग ध्यान करते तथा कुछ विचार अथवा योग या निष्काम कर्म योग से अपने स्वरूप को जानते हैं। कुछ लोग दूसरों से सुनकर वैसी भावना करते हैं। ये भावना करने वाले भी मृत्यु को पार कर जाते हैं। जितने भी चर-अचर प्राणी हैं वे क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ के योग से ही उत्पन्न है। इन सब प्राणियों में समान रूप से स्थित, सबके नाश होते रहने पर भी अविनाशी परमात्मा को जो देखता है, वही ठीक देखता है। सर्वत्र समान रूप में स्थित परमेश्वर को सर्वत्र देखने वाला अपने को स्वयं परिच्छिन्न बनकर, मानकर मारता नहीं, अत: परमगति प्राप्त करता है। सभी कर्म प्रकृति ही करती है। आत्मा अकर्ता है, यह जो देखता है, वह सब पृथक-पृथक प्राणियों में एकत्व को देखता है। उसी एक का सब विस्तार है, यह देखता है तब ब्रह्मत्व प्राप्त करता है। यह परमात्मा अनादि तथा निर्गुण होने से शरीर में रहता हुआ भी न कुछ करता, न कर्म से लिप्त होता है। यह अविनाशी है। यह सूर्य के समान एक होकर भी सब क्षेत्रों का प्रकाशक है। इस प्रकार क्षेत्र क्षेत्रज्ञ का अन्तर, प्राणियों की प्रकृति तथा उनका मोक्ष जानने वाला परमतत्त्व को प्राप्त करते हैं। प्रकृति माता है और मैं पिता हूँ। मेरे सान्निध्य से प्रकृति चराचर जगत को उत्पन्न करती है। सत्व, रज, तम ये प्रकृति के तीन गुण हैं जो अविकारी जीव को शरीर में बाँधते हैं। इनमें सत्वगुण निर्मल, प्रकाशक, स्वस्थ है। यह सुख तथा ज्ञान में अभिमान कराके बाँधता है। रजोगुण रागात्मक है, यह तृष्णा तथा आसक्ति एवं कर्म में रुचि उत्पन्न करता है। तमोगुण अज्ञान तथा मोह में डालने वाला होने से निद्रा, आलस्य, प्रमाद उत्पन्न करता है। ये गुण एक साथ बढ़ते नहीं। इनमें एक प्रबल रहता है तो शेष दो दब जाते हैं। सत्वगुण की वृद्धि के समय मृत्यु होने पर स्वर्गादि पुण्यात्माओं के उत्तमलोक रजोगुण की वृद्धि में मरने पर कर्मासक्त लोगों के यहाँ जन्म और तमोगुण की वृद्धि में मरने पर वृक्षादि मूढ़ योनियाँ मिलती हैं। पुण्य कर्मों का निर्मल सात्त्विक फल, राजस कर्मों का फल दु:ख और तामस कर्मों का फल अज्ञान हैं। सत्वगुणी उर्ध्वलोकों में, रजोगुणी मध्य के लोक में और तमोगुणी अधोलोकों में जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज