पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
47. गीतोपदेश
भक्तिपूर्वक पत्र, पुष्प, फल, जल जो भी कोई मुझे अर्पण करता है, वह मैं संयत होकर स्वीकार करता हूँ। अत: जो भी कर्म करो, भोग भोगो, यज्ञ, दान या तप करो वह मेरे अर्पण कर दो। इस प्रकार तुम शुभ-अशुभ कर्म के बन्धन से छूट जाओगे। इस त्याग तथा योग से युक्त होकर मु्झे प्राप्त कर लोगे। मैं सब प्राणियों के प्रति सम हूँ। न कोई मेरा द्वेष्य है, न प्रिय किन्तु जो भक्तिपूर्वक मेरा भजन करते हैं वे मुझ में स्थित हैं, और मैं उनमें हूँ। भले कोई अत्यन्त अनाचारी हो, किन्तु यदि वह अनन्य भाव से मेरा भजन करता है तो उसे साधु ही मानना चाहिए क्योंकि उसका निश्चय निर्भ्रान्त है। वह शीघ्र धर्मात्मा हो जायेगा और शाश्वत शान्ति प्राप्त करेगा। मेरे भक्त का कभी विनाश नहीं होता। मेरा आश्रय लेकर तो स्त्रियाँ, वैश्य, शूद्र तथा पाप योनि में उत्पन्न पशु-पक्षी तक परमगति को प्राप्त हुए हैं फिर पुण्यात्मा ब्राह्मण एवं भक्त क्षत्रियों की तो चर्चा ही क्या। अत: इस अनित्य, दु:खस्वरूप संसार में आकर मेरा भजन करो। मुझमें मन लगाओ, मेरे प्रति विनम्र रहो, मुझमें प्रीति रखो, मेरे लिए यज्ञ, कर्म करो। इससे तुम्हारा अन्त:करण मुझ में लगा रहेगा। मेरे परायण रहोगे तो मुझे प्राप्त करोगे। देवता, महर्षि तथा इनके भी स्वामी प्रजापति तक मुझे नहीं जानते क्योंकि मैं इन सबका ही आदि कारण हूँ। जो मुझे अजन्मा, अनादि; सर्वलोक महेश्वर जान लेता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान है। वह सब पापों से छूट जाता है। भगवान ने यहाँ अपनी विभूतियों का वर्णन करके कहा - जो मेरी इस विभूति और योग को तत्त्वत: जानता है, वह अविचल होकर मुझसे युक्त होता है। मैं ही सबका उत्पत्ति स्थान एवं सञ्चालक हूँ ऐसा समझकर बुद्धिमान भावपूर्वक मेरा भजन करते हैं। वे मुझ में चित्त, प्राण आर्थात भावना तथा क्रिया लगाये परस्पर मेरी ही चर्चा करते हैं, मुझमें ही सन्तुष्ट रहते हैं, मुझ से ही सुखी होते हैं। उन प्रीतिपूर्वक सतत चित्त लगाकर भजन करने वालों को मैं वह बुद्धियोग देता हूँ जिससे ये मुझे प्राप्त कर लेते हैं। उन पर कृपा करने के लिए उनके आत्मभाव में स्थित मैं ज्ञानदीपक से उनके अज्ञानान्धकार को नष्ट कर देता हूँ। अर्जुन ने भगवान से विस्तार-पूर्वक उनकी विभूतियों का वर्णन पूछा। प्रधान-प्रधान विभूतियों का वर्णन करके भगवान ने कह दिया - इनका विस्तृत वर्णन सम्भव नहीं और व्यर्थ है क्योंकि समस्त जगत मेरी ही विभूति है। मैं अपने एकांश से जगतरूप में स्थित हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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