पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
47. गीतोपदेश
इस अव्यक्त प्रकृति से परे सनातन परम तत्व है जो सब प्राणियों के विनष्ट होते रहने पर भी अविनाशी है। उस अक्षर को ही परमगति कहते हैं। वही मेरा धाम है। उसे प्राप्त करके फिर लौटना नहीं पड़ता। वह परमपुरुष जिसमें सब प्राणी हैं और जो सबमें व्याप्त है, वह अनन्य भक्ति के द्वारा ही प्राप्त होता है। मुझ अव्यक्त मूर्ति के द्वारा यह सम्पूर्ण विश्व व्याप्त है। सब प्राणि-पदार्थ मुझ में ही स्थित है किन्तु मैं उनमें नहीं हूँ। मुझमें प्राणि-पदार्थ तत्त्वत: नहीं हैं। यही मेरा योगेश्वैर्य है कि सबका धारक-पोषक होकर भी मैं सब में नहीं हूँ। सबकी मुझ आत्मा में भावना होती है। जैसे आकाश में वायु सर्वत्र है किन्तु आकाश की दृष्टि से वायु की सत्ता ही नहीं है वैसे ही सब प्राणियों की मुझ में स्थिति है। सब प्राणी मेरी प्रकृति को ही प्राप्त होते हैं। मैं अपनी प्रकृति के द्वारा कल्प के आदि में सबकी सृष्टि करता हूँ और कल्पान्त में प्रलय करता हूँ। यह क्रम बराबर चलता रहता है। सम्पूर्ण प्राणि समूह प्रकृति के वश में है। यह सृष्टि प्रलय रूप कर्म मेरे लिए बन्धनकारी नहीं है क्योंकि मैं इस कर्म में उदासीन हूँ, असंसक्त हूँ। प्रकृति मेरी अध्यक्षता में चराचर जगत उत्पन्न करती है। मूर्ख लोग इस मानव देह में अवतीर्ण मेरी अवगणना करते हैं क्योंकि मैं सब प्राणियों का महेश्वर हूँ, यह मेरा परस्वरूप वे नहीं जानते। इन राक्षसी, आसुरी एवं मोहिनी प्रकृति के आश्रित लोगों की आशा, कर्म तथा ज्ञान व्यर्थ जाता है। वे अज्ञानी हैं। जो दैवी प्रकृति के आश्रित महात्मा हैं वे मुझे सर्वकारण कारण अविनाशी जानकर अनन्य भाव से मेरा भजन करते हैं। भक्तिपूर्वक मुझे नमस्कार करते हैं। नित्य मुझमें लगे रहकर मेरी उपासना करते हैं। मैं सर्वरूप, सर्वाधार हूँ। अत: एकत्व से अथवा पृथकत्व की भावना से मुझ विश्वरूप की उपासना होती है। मैं ही यज्ञ, क्रिया, मन्त्र, औषधि आदि सब हूँ। सम्पूर्ण विश्व की गति, पालक, स्वामी, दृष्टा, अधिष्ठान, शरण, सुहृद, उत्पत्ति एवं प्रलय स्थान एवं अविनाशी बीज मैं ही हूँ। मैं ही अमृत स्वरूप हूँ, सत् हूँ और मैं ही मृत्यु हूँ, असत् हूँ। वेदज्ञ लोग यज्ञ में सोमपान करके पवित्र होकर यज्ञों के द्वारा मेरा ही यजन करते हैं किन्तु वे सकाम स्वर्गकामी होते हैं, अत: स्वर्ग जाकर वहाँ दिव्य भोग प्राप्त करके पुण्य समाप्त होने पर फिर मर्त्यलोक में जन्म लेते हैं। अर्थ, धर्म, काम में लगे लोग इसी प्रकार बार-बार जन्म लेते हैं। जो लोग मेरा अनन्य भाव से चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं उन्हें अपने त्रिवर्ग की चिन्ता नहीं करनी पड़ती। उनके योग-क्षेम का मैं वहन करता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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