पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
47. गीतोपदेश
भगवान के इस विभूति स्वरूप को देखने की इच्छा अर्जुन ने की। उन योगेश्वर ने दिव्य दृष्टि देकर अपना विराट रूप दिखलाया। उस तेजोमय विश्वतोमुख कालस्वरूप को देखने में असमर्थ व्याकुल होकर अर्जुन ने उसके उपसंहार की प्रार्थना स्तुति करके की। अत: यह रूप उन समर्थ ने उपसंहृत कर लिया। भगवान ने कहा - 'अर्जुन ! तुम ने जिस विराट रूप में मुझे देखा है उसका दर्शन वेदाध्ययन, तपस्या, दान, यज्ञ आदि से नहीं हो सकता। केवल अनन्य भक्ति से ही इसका ज्ञान, दर्शन तथा तत्वत: इसमें प्रवेश शक्य है। अत: मेरे परायण रहकर मेरे लिए ही कर्म करो। जो मेरा भक्त है, अनासक्त है और समस्त प्राणियों से शत्रुताहीन है, वह मुझे ही प्राप्त करता है।' अर्जुन ने पूछा - 'जो इस प्रकार सतत आप में ही लगे रहकर सर्वत्र आपकी उपासना करने वाले भक्त हैं और जो अविनाशी अव्यक्त की उपासना करते हैं इनमें योगवित्त में - योग को जानने वालों में श्रेष्ठ कौन है?' श्रीकृष्ण ने बिना संकोच कहा - 'जो मुझ में मन को आविष्ट करके सदा मुझ में लगकर मेरी उपासना परम श्रद्धा सहित करते हैं, मेरे मत में वे युक्ततम है। जो इंद्रिय समूह को संयमित करके सर्वत्र समबुद्धि रखकर अविनाशी, अनिर्देश्य , सर्वव्यापी, अचिंत्य, कूटस्थ, अचल, ध्रुव, अव्यक्त की पर्युपासना करते हैं, वे सर्वभूत हित में लगे रहने वाले भी मुझे ही प्राप्त करते हैं किन्तु उन अव्यक्त में आसक्त चित्त लोगों को बहुत अधिक क्लेश होता है क्योंकि शरीरधारी की गति अव्यक्त में बहुत दु:ख से ही होती है। जो सब कर्मों को मुझे देकर, मेरे परायण हो गये और अनन्य योग से मेरा ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं उन अपने में आविष्ट चित्त लोगों का मृत्यु रूप संसार सागर से मैं अविलम्ब उद्धार करता हूँ। इसलिए मुझमें ही मन तथा बुद्धि लगा दो। इसके पश्चात नि:सन्देह मुझ में ही निवास करोगे। मुझ में स्थिर चित्त लगाये रहना संभव न हो तो इसका अभ्यास करना चाहिए। वह अभ्यास भी संभव न हो तो मेरे लिए ही कर्म करना चाहिए। मेरे लिए ही सब कर्म करने से भी अन्त:करण शुद्ध हो जायेगा। यदि यह भी संभव न हो, कर्म करते समय अपना कर्तृव्य न छूटे तो कर्मों का फल मेरे अर्पण करते रहो और चित्त को संयमित रखो। जो किसी प्राणी से द्वेष नहीं करता, सबका मित्र है सब पर दया करता है, ममता अहंता रहित है, सुख-दु:ख में समान है, क्षमाशील है, सदा संतुष्ट रहता है, सयतचित्त है, दृढ़ निश्चय करके मुझ में मन-बुद्धि अर्पित कर चुका है वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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