पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
4. गुरुतत्व
ईश्वर को– परमेश्वर के किसी रूप शिव, विष्णु, राम कृष्णादि को, किसी अप्रत्यक्ष महापुरुष– नारदजी, भगवान व्यास, हनुमानजी अथवा किसी दिवंगत संत को या किसी ग्रन्थ को– गीता, भागवत, रामचरित मानस आदि को गुरु बना लेने, मान लेने की बात लोग कहते या सोचते हैं; किन्तु इन सब में व्यक्ति को केवल स्वयं चुनना होता है। वह किसी को भी इनमें-से गुरु मान ले उसको मान ही लेना है। उसकी बुद्धि का ही निर्णय प्रधान बना और उसकी बुद्धि को भ्रान्त होने पर मार्ग–दर्शन देने वाला तथा उस पर अंकुश रखने वाला कोई मिला नहीं है। कुल मिलाकर वह गुरु ही नहीं रहा है। ‘एतत सर्व गुरौ भक्त्या पुरुषोह्यञ्जसा जयेत्।‘[1] इन सब मनोदोषों को गुरु-भक्ति के द्वारा पुरुष सरलता से जीत लेता है। गुरु-भक्ति काम, क्रोध, लोभ, मोहादि को दूर कर देती है। व्यक्ति में श्रद्धा, नम्रता, सेवा, सहन शीलता, त्याग, तितीक्षादि सद्गुणों को आधान होता है गुरु-भक्ति से। गुरु असंयम पर अंकुश रखता है। सबसे बड़ी बात- दायित्व गुरु का हो जाता है। स्वयं साधक निश्चिंत हो जाता है। शास्त्रों में सभी साधनों की, मन्त्रों की, ईश्वर के स्वरूपों की प्रशंसा है। संत-सत्पुरुष, साधक अपने-अपने साधन की, सम्प्रदाय की प्रशंसा करते ही हैं, उसे सरलतम और सर्वश्रेष्ठ भी कहते हैं। अब यदि साधन स्वयं चुना गया है, गुरु नहीं है और उसमें संदेह उठा मन में तो निष्ठा विचलित न हो, इसका कोई उपाय है ? समस्त साधनों में अहंकार को सबसे बड़ा प्रतिबन्ध माना गया है। जिसने गुरु नहीं बनाया किसी को, उसके इस अहंकार को कौन दूर करेगा कि ‘यह मैंने स्वयं किया।’ और इसके दूर हुए बिना प्रगति होगी ? प्रत्यक्ष किसी व्यक्ति को गुरु बनाने में जो बाधाएँ हैं, वे भी उपेक्षनीय नहीं हैं। शास्त्र कहते हैं कि गुरु में दो विशेषताऐं अवश्य होनी चाहिए- ‘श्रोतियं ब्रह्मनिष्ठं’[2] जो शास्त्र ज्ञान सम्पन्न नहीं है, वह केवल उस साधन को जानता है, जिसे उसने स्वयं किया है। फलत: वह सबको उसी का उपदेश करेगा। उसी को सर्वश्रेष्ठ बतलावेगा। वह अधिकारी के अनुसार साधन नहीं बतला सकेगा। लेकिन जो शास्त्रज्ञ हैं, परन्तु अनुभवी नहीं हैं, वह केवल सिद्धान्त बतला सकता है, व्यवहारिक मार्ग-दर्शन नहीं दे सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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