पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
4. गुरुतत्व
कोई अनुभवी- तत्वज्ञ है या नहीं, यह जानना बहुत कठिन है- लगभव असम्भव प्राय– क्योंकिे नियम यह है कि अपने समान या उससे नीचे की योग्यता वाले की योग्यता ही जानी जा सकती है। अपने से अधिक योग्यता में कितनी अधिक है, जाना नहीं जा सकता। अत: कोई शास्त्रज्ञ है या नहीं, यह अनुमान तो पूछताछ से भी हो सकता है; किन्तु महापुरुष कोई है या नहीं, यह जानना अशक्यप्राय है। इस समय साधु वेश सामान्य हो गया है। अब तो लोग सामयिक (चार-छ: महीने या दिनों के लिए भी) साधु वेश स्वीकार करने लगे हैं। अपने को अनुभवी संत ही नहीं, ईश्वर का अवतार तक घोषित करने वालों की संख्या बहुत बड़ी है। जो ठीक संस्कृत भी नहीं जानते वह अपने को वेदों, दर्शनों का परंगत घोषित करते हैं। ऐसे लोगों का प्रचार तन्त्र बहुत प्रबल है। इनमें बहुत लोग बड़े बुद्धिमान, प्रभावशाली वक्ता हैं। इस प्रकार एक बहुत बड़ा समुदाय अपने को ईश्वर अथवा महापुरुष घोषित कर रहा है। इनके शिष्यों- प्रचारकों की संख्या लाखों में है। जब यह व्यवसाय सुनियोजित ढंग से चल रहा है, गुरु पाना या बनाना कितना कठिन है, समझा जा सकता है। गुरु बनाना निरापद नहीं है, इसमें ठगे जाने की सम्भावना बहुत है, इस तर्क को कोई आज अस्वीकार कर नहीं सकता। ‘किसी को गुरु मत बनाओ ! ईश्वर ही सबका वास्तविक गुरु है। उसी को गुरु मान लो।’ यह बात जहाँ एक ओर निरापद लगती है, दूसरी ओर मनुष्य के आज के निरंकुश, उच्छृंखल अहंकार को संतुष्ट भी करती है। लेकिन गुरु न बनाने के सम्बन्ध में जितने भी कारण दिये अथवा सोचे जाते हैं, उनमें दो बातों की सर्वथा उपेक्षा कर दी जाती है। पहिली बात शिष्य की योग्यता और दूसरी बात परम गुरु का दायित्व एवं शक्ति-सामर्थ्य। गुरु कैसा चाहिए, यह बात पीछे। पहिली बात यह है कि गुरु किसे चाहिए ? यदि शिष्य अधिकारी नहीं है तो वह चाहे जितनी खोजवीन करे, उसे उचित गुरु मिल नहीं सकता। जो बिना परिश्रम किये नोट दुगुना कराना या सोना बनवाना चाहता है, उसे ठगे जाने से कोई बचा सकता है? ऐसे लोगों को ठगने वालों का अभाव समाज में न कभी रहा, न रहेगा। जब कोई धन के द्वारा परमार्थ खरीदना चाहता है, जब पैसा देकर ‘ज्ञानी, भक्तराज’ आदि की उपाधि किसी प्रसिद्ध महापुरुष से चाहता है, जब चाहता है कि मुझे कुछ करना न पड़े और कोई समाधि लगवा दे अथवा ईश्वर को सामने खड़ा कर दे, जब कोई चाहता है कि मैं अपने को इतने प्रसिद्ध संत का शिष्य कह सकूं, जब सत्संग के साथ सम्मान तथा ठहरने आदि की सुख-सुविधा भी चाहता है तो ऐसा व्यक्ति ठगा नहीं जायगा? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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