पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
4. गुरुतत्व
‘न तस्य प्रतिमा अस्ति’[1] श्रुति का यह अंश अत्यन्त स्वागतार्ह है; क्योंकि उस आराध्य की कोई प्रतिमा होती तो उसका साक्षात्कार किये बिना कोई मूर्ति बन ही नहीं पाती। वह भी दूसरी मूर्ति को अपनी नहीं मान पाता। तब तो पूजन का ही उच्छेद हो जाता। उसकी कोई मूर्ति नहीं है, इसलिए कोई भी मूर्ति उसकी पूजा का माध्यम बन सकती है। वह सभी मूर्तियों में है और सर्वज्ञ होने से जानता है कि पूजा उसकी हो रही है। चेतन को पूजा की प्राप्ति नहीं; पूजा का ज्ञान होता है और वह ज्ञान ही उसे सन्तुष्ट करता है। जब आप किसी श्रद्धेय की पूजा करते हैं तो पूजा के सब पदार्थ उनके शरीर को- पंच भौतिक मूर्ति को ही प्राप्त होते हैं। उनके चेतन को अपनी पूजा का ज्ञान मात्र ही होता है और यह ज्ञान ही उन्हें सन्तुष्ट करता है। पूजा की ही क्यों जाय? यह इसलिए की जाय क्योंकि भावना का परिपाक बिना क्रिया और वस्तु को अर्पित किये होता नहीं है। हमारे जीवन में वस्तु की आवश्यकता और क्रिया की महत्ता जमकर बैठी है। अत: जहाँ हम न वस्तु अर्पित करते, न क्रिया करते, वहाँ हमारे मन में भाव भी ठीक नहीं बन पाता। श्रद्धा का व्यक्त होने का, भाव को प्रकट करने तथा पुष्ट करने का माध्यम है वस्तु का अर्पण तथा क्रिया के द्वारा सेवा। जिसके जीवन में से क्रिया की महत्ता और पदार्थ की आवश्यकता समाप्त हो गयी है, वही बिना वस्तु एवं दैहिक क्रिया को माध्यम बनाये मानसिक पूजा का अधिकारी है। अन्यथा मानसिक भाव मात्र बहुत ओछे बने रहेंगे और हृदय में उनकी प्रगाढ़ता नहीं आवेगी। आप अपने लिए वस्तुऐं चाहते जुटाते हैं और कर्म करते, दूसरों से चाहते हैं। आपका राग तो पदार्थ में, क्रिया में है। अब यह राग परमात्मा में, देवता में, गुरु में, संत में किस माध्यम से जायगा ? जहाँ आपका राग है, वे वस्तुऐं, देह की सेवा देंगे तो वह राग वहाँ जायगा। केवल कल्पना से राग नहीं जायगा। जैसे मूर्ति-पूजा का खण्डन पूजा के इस रहस्य को समझे बिना किया जाता है, बहुत बड़े लोगों ने, बहुत देशों में, बहुत व्यापक क्षेत्र में, बहुत समय से किया है, करते आये हैं, कर रहे हैं; वैसे ही किसी को गुरु बनाने का खण्डन भी बहुत बड़े लोगों ने व्यापक स्तर पर किया है, अब भी करते हैं। लेकिन सत्य खण्डन करने वालों की संख्या, गरिमा से म्लान नहीं हुआ करता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शुक्ल यजुर्वेद 32.3
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