कृष्णाप्रिया श्रीरुक्मिणी जी का प्रभु में अनन्य प्रेम
हे अच्युत! हे शत्रुनाशन! जो स्त्री-प्रधान घरों में रहकर गधे के समान बोझ ढोते हैं, बैल की तरह नित्य गृहस्थी के कामों में जुते रहकर क्लेश भोगते हैं, कुत्ते के समान जिनका तिरस्कार होता है, बिलाव की तरह जो दीन बने हुए गुलामों की भाँति स्त्री आदि की सेवा में लगे रहते हैं- ऐसे शिशुपालादि राजा उसी (अभागिनी) स्त्री के पति हो; जिसके कानों में शिव-ब्रह्मादि की सभाओं में आदर पाने वाली आपकी पवित्र कथाओं ने प्रवेश नहीं किया हो। हे स्वामिन! जिसने आपके चरणारविंद के मकरंद-सुगंध को कभी नहीं पाया अर्थात जिसने आपके चरणों में मन लगाने का आनंद कभी नहीं पाया, वही मूढ़ स्त्री बाहर त्वचा, दाढ़ी-मूँछ, रोम, नख और केशों से ढके हुए तथा भीतर मांस, हड्डी, रुधिर, कृमि, विष्ठा, कफ, पित्त और वात से भरे हुए जीवन्मृत[1] पुरुषों को पतिभाव से भजेगी।
हे कमलनयन! आपने कहा कि 'हम उदसीन हैं, आत्मलाभ से पूर्ण हैं' सो सत्य है; क्योंकि निजानन्द-स्वरूप में रमण करने के कारण मुझ पर अत्यंत अधिक दृष्टि नहीं रखते, तथापि मेरी यही प्रार्थना है कि आपके चरणों में मेरा चित्त सदा लगा रहे। आप इस जगत की वृद्धि के लिये उत्कृष्ट रजोगुण को स्वीकार करते हुए मुझ (प्रकृति)-पर जो दृष्टि डालते हैं, उसी को मैं परम अनुग्रह मानती हूँ। प्रभो! मैं आपके कथन को मिथ्या नहीं मानती; जगत में कई स्त्रियाँ ऐसी हैं जो स्वामी के रहते भी अन्य पुरुष के आसक्त हो जाती हैं। पुंश्चली स्त्रियों का मन विवाह हो जाने पर भी नये-नये पुरुषों पर आसक्त होता रहता है, किंतु चतुर बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि वे ऐसी असती स्त्रियों से विवाह कभी न करें। क्योंकि ऐसी स्त्रियाँ दोनों कुलों को कलंकित करती हैं, जिससे स्त्री के साथ ही पुरुष की भी इस लोक में और परलोक में बुरी गति होती है।'
इस प्रकार भगवान को तत्त्व से जानने वाली प्रेम की प्रत्यक्ष मूर्ति देवी रुक्मिणीजी ने अपने भाषण में भगवान का स्वरूप, माहात्म्य, भगवत्प्राप्ति के उपाय, भक्तों की निष्ठा, भक्तों के कर्तव्य और भगवान से विमुख अधम जीवों की दशा तथा उनकी गति का वर्णन किया। देवी रुक्मिणी के इस भाषण से भगवान बड़े प्रसन्न हुए और सकामभाव की निंदा, निष्काम की प्रशंसा तथा सब कुछ छोड़कर प्रेम से भगवत्प्राप्ति के लिये व्याकुल रहने वाले भक्तों का महत्त्व बतलाते हुए उन्होंने कहा-
दूतस्त्वयाऽत्मलभने सुविविक्तमंत्र:
प्रस्थापितो मयि चिरायति शून्यमेतत्।
मत्वा जिहास इदमंगमनन्ययोग्यं
तिष्ठेत तत्त्वयि वयं प्रतिनंदयाम:॥[2]
'तुमने मुझको ही वरण करने का दृढ़ निश्चय करके अपने प्रेम की सूचना देने के लिये मेरे पास दूत भेजा और जब मेरे आने में कुछ विलम्ब हुआ, तब तुमने सब जगत को शून्य देखकर यह विचार किया कि यह शरीर और किसी के योग्य नहीं है। इसका न रहना ही उत्तम है, अतएव मैं तुम्हारे प्रेम का बदला चुकाने में असमर्थ हूँ। तुमने जो किया वह तुम्हारे ही योग्य है, मैं केवल तुमको प्रसन्न करने का प्रयत्न करूँगा।'
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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