कृष्णाप्रिया श्रीरुक्मिणी जी का प्रभु में अनन्य प्रेम 2

कृष्णाप्रिया श्रीरुक्मिणी जी का प्रभु में अनन्य प्रेम

ब्राह्मण ने सारी कथा संक्षेप में सुनाकर वह प्रेम-पत्रिका भगवान को दिखलायी, जिस पर श्रीरुक्मिणी के द्वारा अपनी प्रेम-मुद्रिका की महुर लगायी हुई थी। भगवान की आज्ञा पाकर ब्राह्मण ने पत्र पढ़कर सुनाया। पत्र में लिखा था 'हे त्रिभुवन की सुंदरता के समुद्र! हे अच्युत! जो कानों के छिद्रों द्वारा हृदय में प्रवेश करके (तीनों प्रकार के) तापों को शांत करते हैं, वे आपके सब अनुपम गुण और नेत्रधारियों की दृष्टि का जो परम लाभ है; ऐसे आपके मनोमोहन स्वरूप की महिमा सुनकर मेरा चित्त आप पर आसक्त हो गया है, लोकलज्जा का बंधन भी उस (प्रेम के प्रवाह)-को नहीं रोक सकता।'

'हे मुकुंद! ऐसी कौन कुलवती, गुणवती और बुद्धिमाती कामिनी है, जो आप-जैसे अतुलनीय कुल, शील, स्वरूप, विद्या, अवस्था, सम्पत्ति और प्रभाव-सम्पन्न पुरुष को विवाह-समय उपस्थित होने पर पति-रूप से वरण करने की अभिलाषा नहीं करेगी। हे नरश्रेष्ठ! आप ही तो मनुष्यों के मन को रमाने वाले हैं। अतएव हे विभो! मैंने आपको पति मानकर आत्मसमर्पण कर दिया है, अतएव आप यहाँ अवश्य पधारकर मुझे अपनी धर्मपत्नि बनाइये। हे कमलनयन! मैं अब आपकी हो चुकी, क्या सियार कहीं सिंह के भाग को हर ले जा सकता है? मैं चाहती हूँ आप वीर-श्रेष्ठ के भाग-मुझ को सियार शिशुपाल यहाँ आकर स्पर्श भी न कर सके। यदि मैंने पूर्त (कुआँ-बावड़ी आदि बनवाना), इष्ट (अग्निहोत्रादि), दान, नियम, व्रत एवं देवता, ब्राह्मण और गुरुओं के पूजन द्वारा भगवान की कुछ भी आराधना की है तो भगवान श्रीकृष्ण स्वयं आकर मेरा पाणिग्रहण करें और दमघोषनंदन (शिशुपाल) आदि दूसरे राजा मुझे हाथ भी न लगा सकें।'

'हे अजित परसों विवाह की तिथि है, अतएव आप एक दिन पहले गुप्त-रूप से पधारिये, फिर पीछे से आये हुए अपने सेनापतियों को साथ लेकर शिशुपाल-जरासंध आदि की सेना को नष्ट-भ्रष्ट कर बलपूर्वक मुझे ग्रहण कीजिये, यही मेरी विनम्र प्रार्थना है। यदि आप यह कहें कि तुम तो अंत:पुर में रहती हो, तुम्हारे बंधुओं को मारे बिना मैं किस तरह तुम्हारे साथ विवाह कर सकता हूँ या तुम्हें हरकर ले जा सकता हूँ? तो मैं आपको उसका उपाय बताती हूँ। हमारे कुल की सनातन रीति के अनुसार कन्या पहले दिन कुलदेवी भवानी की पूजा करने के लिये बाहर मंदिर में जाया करती है। वहाँ मुझे हरण करना सुलभ है।' इतना लिखने के पश्चात् अंत में रुक्मिणी लिखती हैं-

यस्याड़घ्रिपकंजरज:स्नपनं महांतो।
वाञ्छंत्युमापतिरिवात्मतमोऽपहत्यै।
यर्ह्याम्बुजाक्ष न लभेय भवत्प्रसादं
जह्यमसून् व्रतकृशाञ्छतजन्मभि: स्यात्॥[1]

'हे कमललोचन! उमापति महादेव तथा उनके समान दूसरे ब्रह्मादि महान लोग, अपने अंत:करण का अज्ञान मिटाने के लिये आपके जिस चरणरज के कणों से स्नान करने की प्रार्थना करते रहते हैं, मैं यदि उस प्रसाद को नहीं पा सकी तो निश्चय समझियेगा कि मैं व्रत-उपवासादि के द्वारा शरीर को सुखाकर व्याकुल हुए प्राणों को त्याग दूँगी। (यों बारम्बार करते रहने पर अगले) सौ जन्मों में तो आपका प्रसाद प्राप्त होगा ही।'


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 10।42।43

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