कृष्णाप्रिया श्रीरुक्मिणी जी का प्रभु में अनन्य प्रेम 5

कृष्णाप्रिया श्रीरुक्मिणी जी का प्रभु में अनन्य प्रेम

हे सुभ्रु! तुम जानती हो, हम राजाओं के भय से समुद्र-किनारे आ बसे हैं, क्योंकि हमने बलवानों से वैर बाँध रखा है; फिर राज्यसन के अधिकारी भी नहीं हैं। जिनका आचरण स्पष्ट समझ में नहीं आ सकता, जो स्त्रियों के वश में नहीं रहते, ऐसे हम-सरीखे पुरुषों की पदवी का अनुसरण करने वाली स्त्रियाँ प्राय: कष्ट और दु:ख ही उठाया करती हैं। हे सुमध्यमे! हमलोग स्वयं निष्किञ्चन स्वयं निष्किञ्चन[1] हैं और धन-सम्पत्तिरहित दरिद्र ही हम से प्रेम करते हैं।

धनवान लोग प्राय: हम को नहीं भजते। जो लोग धन, जाति, ऐश्वर्य, आकार और अवस्था में परस्पर समान हो, उन्हीं से मित्रता और विवाह करना शोभा देता है। अपने से अत्यंत विषम परिस्थिति वालों के साथ विवाह या मित्रता कभी उचित नहीं होती। हे रुक्मिणी! तुम दूरदर्शिनी नहीं हो इसी से बिना जाने तुमने मुझ-जैसे गुणहीन को नारदादि के मुख से प्रशंसा सुनकर वर लिया, वास्तव में तुमको धोखा हुआ। यदि तुम चाहो तो अब भी जिसके संग से तुम इस लोक और परलोक में सुख प्राप्त कर सको, ऐसे किसी अन्य योग्य क्षत्रिय को ढूँढ़ सकती हो। तुम्हारा हरण तो शिशुपाल-दंतवक्त्र आदि घमंडी राजा और हमसे वैरभाव रखने वाले तुम्हारे भाई रुक्मी का दर्प-दलन करने के लिये किया जाता था; क्योंकि बुरे लोगों का तेज नाश करना ही हमारा कर्तव्य है। इतना कहकर अंत में भगवान बोले-

उदासीना वयं नूनं न स्त्र्यपत्यार्थकामुका:।
आत्मलब्ध्याऽऽस्महे पूर्णा गेहयोर्ज्योतिरक्रिया:॥[2]

'हे राजकुमारी! हम आत्मलाभ से ही पूर्ण होने के कारण स्त्री, पुत्र और धनादि की कामना नहीं रखते। हम उदासीन हैं, देह और गृह में हमारी आसक्ति नहीं है। जैसे दीपक की ज्योति केवल प्रकाश करके साक्षीमात्र रहती है, वैसे ही हम समस्त क्रियाओं के केवल साक्षीमात्र हैं।'

भगवान के इस रहस्य पूर्ण कथन पर हम क्या कहें? भगवान ने इस व्याज से भक्त को अपना वास्तविक स्वरूप और भक्त का कर्तव्य तथा उसके लक्षण बतला दिये। भगवती रुक्मिणी कि[3] इन शब्दों से बड़ी मर्म वेदना हुई, वे मस्तक अवनत करके रोने लगीं, अश्रुधार से शरीर भींग गया। दारुण मनोवेदना से कण्ठ अवरुद्ध हो गया और अंत में अचेत होकर गिर पड़ी। भगवान रुक्मिणी की इस प्रेम-दशा को देख मुग्ध होकर तुरंत पलंग से उठे और चतुर्भुज होकर दो हाथों से रुक्मिणी को उठा लिया और उनके बिखरे हुए केशों को सँवार कर आँसू पोंछने लगे। रुक्मिणीजी को चेत हुआ तब भगवान बोले- 'राजकुमारी! मैं तो हँसी करता था, तुम्हारे चरित्र को मैं भलीभाँति जानता हूँ। तुम्हारे मुख से प्रणयकोप प्रकट करने वाली बातें सुनने के लिये ही मैंने इतनी बातें कही थीं।

भगवान भक्त की परीक्षा तो बड़ी कठिन लिया करते हैं, परंतु फिर तुरंत सँभाल भी लेते हैं। भगवान ने रुक्मिणी को बहुत समझाकर धैर्य बँधाया, तब भगवान के चरणकमलों की नित्य अनुरागिणी देवी रुक्मिणी बड़े मधुर शब्दों में भगवान से कहने लगीं- 'हे कमलनयन! आपने जो ऐसा कहा कि मैं तुम्हारे समान नहीं था, तुमने क्यों मेरे साथ विवाह किया? ' सो आपका कथन सर्वथा सत्य है, मैं अवश्य ही आपके योग्य नहीं हूँ। कहाँ ब्रह्मादि तीनों देवों के या तीनों गुणों के नियंता दिव्य शक्तिसम्पन्न आप साक्षात भगवान! और कहाँ मैं अज्ञानी तथा सकाम पुरुषों के द्वारा पूजी जाने वाली गुणमयी प्रकृति! हे प्रभो! आपका यह कहना कि 'हम राजाओं से डरकर समुद्र की शरण में आकर बसे हैं' सर्वथा सत्य है; क्योंकि शब्दादि गुण ही राजमान[4] होने के कारण 'राजा' हैं उनके भय से ही मानो समुद्र के सदृश अगाध विषयशून्य भक्तों के हृदय देश में आप चैतन्यघन आत्मरूप से प्रकाशित हैं। आपका यह कहना भी ठीक है कि 'हमने बलवानों से वैर बाँध रखा है और हम राज्यासन के अधिकारी नहीं हैं।' बहिर्मुख हुई प्रबल इंद्रियों के साथ अथवा जिनकी प्रबल इंद्रियाँ विषयों में आसक्त हैं, उनसे कभी आपको प्रीति नहीं है। हे नाथ! राज्यासन तो घोर अविवेकरूप है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. धन-सम्पत्तिरहित
  2. श्रीमद्भा. 10।60।20
  3. तुम ऐसे किसी अन्य योग्य क्षत्रिय को ढूँढ़ सकती हो
  4. प्रकाश पाने वाले

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