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ब्रह्म क्रिया का ही रूप है और इस भौतिक जगत में आने का प्रयोजन इसके अतिरिक्त कोई नहीं है कि सद्विचार और सदिच्छापूर्वक सत्कर्मों का विकास किया जावे, अन्यान्य सारी बातें इसी की सहायक है। संसार वांछनीय वस्तुओं से परिपूर्ण है, ईश्वर ने जगत के अन्दर ऐसे पदार्थ भर रखे हैं जो कामना को जागृत करने वाले हैं। ईश्वर स्वयं प्रत्येक वस्तु में अन्तर्हित है, प्रत्येक पदार्थ में जो मोहकता एवं आकर्षण शक्ति है वह उसी की दी हुई है। यही कारण है कि भगवान ने कर्म पर इतना जोर दिया है। कर्मयोग नामक गीता के तीसरे अध्याय को पढ़ने से इसका कारण स्पष्ट समझ में आ जाता है। सब कुछ कर्म के आश्रित है। अन्न से भूतों की उत्पत्ति होती है, वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है, यज्ञ से वर्षा होती है, कर्म से यज्ञ होता है, और ब्रह्म से कर्म की उत्पत्ति जाननी चाहिये[1]। यही जीवन की श्रृंखला है– अन्न से भूत-प्राणी, वर्षा से अन्न, यज्ञ से वर्षा, कर्म से यज्ञ, ईश्वर से कर्म। संसार की सारी स्थिति, जीवों की सारी उत्पत्ति कर्म के आश्रित हैं।
भगवान ने बार-बार यही उपदेश दिया है, ‘तू सत्कर्म कर, क्योंकि निष्क्रियता से कर्म करना श्रेष्ठ है, कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं हो सकेगा’[2]। कर्म के पक्ष में सबसे बड़ी युक्ति यही है। भगवान की युक्ति इतनी प्रबल है कि नास्तिक को भी उनके सामने सिर झुकाना पड़ता है। नास्तिक के कलये उसका शरीर ही सब कुछ है। यदि वह भी कर्म नहीं करेगा तो उसकी ‘शरीर-यात्रा’ नहीं हो सकेगी।
उपर्युक्त विवेचन के बाद हमें कर्तव्य निष्ठा के सम्बन्ध में विचार करना आवश्यक हो जाता है जो इसी प्रश्न का दूसरा पहलू है। ‘स्वधर्म’इन दो शब्दों में भगवान ने बहुत गहन अर्थ भर दिया है। भगवान के वचनों का पूर्णतया पानी नहीं करने से सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं धार्मिक व्यवस्था का सारा महल मटियामेट हो जायेगा। जब संसार एक मशीन अथवा पाठशाला की भाँति है। जब तक मशीन का प्रत्येक अवयव ठीक हालत में होता है और अपना काम करता रहता है तब तक उसकी अनुकूल गति में कोई रुकावट नहीं पड़ती। इसी प्रकार पाठशाला कोई भी विद्यार्थी जब तक अपनी श्रेणी के लिये नियत किये हुए पाठ्यक्रम को ध्यानपूर्वक नहीं पढ़ लेता तब तक उसे अध्ययन से कोई लाभ नहीं होता। अपने प्राप्त कर्तव्य का पालन करने से ही वह निरन्तर उन्नति कर सकता है।
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