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भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं अपने श्रीमुख से कहा है– ‘हे परन्तप (अर्जुन) ! शक्ति (गुण) तथा कर्मों के भिन्न-भिन्न विभाग के चारों वर्णों की सृष्टि मेरे ही द्वारा हुई है, उनका कर्ता मुझे ही समझो’[1]। भगवान श्रीकृष्ण फिर कहते हैं– ‘हे परन्तप ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रों के कर्मों का विभाग उनके स्वभाव से उत्पन्न हुए गुणों के अनुसार ही हुआ है’। आधुनिक काल में शूद्रों के साथ जैसा बर्ताव होता है वह हमारी प्राचीन संस्कृति के आदर्श के विरुद्ध है। दलित जाति को घृणा की दृष्टि से देखना और उनके साथ निन्दनीय बर्ताव करना मानव जाति की पवित्रता के प्रति अपराध करना है। यह कहने से कि सिर और पैर की रचना अलग-अलग हुई है और उनके अलग-अलग काम हैं, पैर की अवज्ञा और सिर की बड़ाई नहीं होती। साथ ही इसके विरुद्ध उन दोनों से जबर्दस्ती एक ही काम करवाने की चेष्ट करना भी मूर्खता है। इस बात को कौन स्वीकार करेगा कि सिर और पैर, द्विज और शूद्र, वृद्ध एवं बालक दोनों का ही समान रूप से पोषण करना, उनके साथ समान रूप से प्रेम का बर्ताव करना और समान रूप से दोनों की संभाल एवं रक्षा करना हमारा कर्तव्य है।
यह पहले ही कहा जा चुका है कि चारों वर्णों की उत्पत्ति भगवान से ही हुई है। फिर वे यह आज्ञा कैसे दे सकते थे कि शूद्रों के साथ निर्दयता का बर्ताव किया जाये, जैसा आजकल भारत के कई प्रान्तों में होता है। भगवान ने अन्यत्र भी कहा है– ‘सारे भूतों के ईश्वर रूप मुझ परमात्मा की सत्ता को न जानते हुए मूर्ख लोग मुझे मानव विग्रह में देखकर मेरी अवज्ञा करते हैं’[2]।
‘हे गुडाकेश ! मैं ही सब भूतों के हृदय में निवास करने वाला अन्तरात्मा हूँ, मैं ही सारे भूतों का आदि, मध्य और अन्त हूँ’। ‘हे अर्जुन ! सारे भूतों का जो कुछ भी बीज है वह मैं ही हूँ, चर-अचर भूतप्राणी कोई भी ऐसा नहीं है जो मेरे बिना रह सके’। क्या इन अमूल्य वचनों से भी अधिक स्पष्ट कोई बात हो सकती है ? क्या इनसे यह बात असंदिग्ध रूप से नहीं झलकती कि मानव जाति बड़ी पवित्र है ? क्या किसी चाण्डाल के अन्दर निवास करने वाली आत्मा किसी क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण की आत्मा से वास्तव में भिन्न है ? क्या चाण्डाल के अन्दर ईश्वर की सत्ता नहीं हैं, जब हम भगवान के उपर्युक्त शब्दों को सामने रखते हुए अपने इन अभागे भाइयों की दशा पर विचार करते हैं तो हमारे सामने ये प्रश्न स्पष्टतया उपस्थित होते हैं।
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