कृष्णांक
गीता के वक्ता श्रीकृष्ण
भगवान के दो रूप दोनों ही हैं और दोनों की भक्ति हो सकती है, पर व्यक्त पुरुष की भक्ति अव्यक्त की अपेक्षा सुगम तथा सुखसाध्य है। सीधी सी बात है कि भक्ति में मन स्थिर करना अति आवश्यक है और मन स्थिर करने के लिये सामने कोई स्थिर पदार्थ होना आवश्यक है। स्वभाव से ही चंचल होने के कारण बिना किसी वस्तु को सामने रखे, इसे स्थिर करना और भी कठिन है। साधारण व्यक्ति की तो बात ही क्या है, बड़े-बड़े ज्ञानियों के लिये कठिन है। जो चीज निराकार है उसे दूसरे को समझाना तक कठिन है। शून्य को कोई आकार नहीं है, पर एक अध्यापक विद्यार्थियों को गणित की शिक्षा देते हुए उस शून्य को गोलाकार बनाता है, तब वे इसे समझते हैं। तब जो जिस विषय से अनभिज्ञ हैं उसे भी उस विषय का विद्यार्थी ही समझना चाहिये। उसे समझने समझाने के लिये किसी न किसी आकार की बड़ी जरूरत है। स्वयं भगवान भी अव्यक्तोपासना की कठिनता को प्रकट करते हुए कहते हैं– क्लेशोअधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्। अव्यक्त पुरुष में चित्त लगाने वाले पुरुषों को बहुत अधिक क्लेश होता है, क्योंकि अव्यक्तोपासना का मार्ग देहधारी लोगों को कष्ट के सिद्ध होता है। किसी भी दृष्टि से विवेकपूर्वक देखने से यह मानना पडे़गा कि व्यक्ति पुरुष की भक्ति पुरुष के लिये सुगम और सुखसाध्य है। भक्ति की बड़ी महिमा है। जो भक्त है उसके सारे दोष माफ हैं। कहने का अर्थ यह है कि भगवान का भक्त हो जाने से फिर वह कोई पाप नहीं करता, और पिछले पापों से भी भगवान की कृपा से उसका छुटकारा हो जाता है। भगवान भक्त की महिमा का गीता के ९वें अध्याय में बड़े सुन्दर शब्दों में वर्णन करते हैं– अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् । यानी चाहे बड़े से बड़ा दुराचारी भी क्यों न हो यदि वह मुझे अनन्यभाव से भजता है तो उसे साधु के समान समझना चाहिये, क्योंकि उसकी बुद्धि अच्छे निश्चय पर रहती है (बुद्धि अच्छे निश्चय पर हो जाने से) वह जल्दी ही धर्मात्मा हो जाता है और नित्य शान्ति पाता है। हे कौन्तये ! तुम यह जान लो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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