कृष्णांक
गीता के वक्ता श्रीकृष्ण
ऐसे भक्त ज्ञानी के सम्बन्ध में भगवान कहते हैं– तेषां ज्ञानी नित्युक्त एकभक्तिर्विशिष्यते । अर्थात (उनमें भी) नित्य मेरे में एकीभाव से स्थित हुआ अनन्य प्रेमभक्ति वाला ज्ञानी और भी उत्तम है। क्योंकि मेरे तत्व को जानने वाले ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्यारा हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्यारा है। कर्म और ज्ञान के बाद नम्बर आता है भक्ति का, जो भगवत्प्राप्ति की तीसरी पीढ़ी है। गीता के नवें अध्याय में भगवान ने भक्ति के स्वरूप का वर्णन करने के पहले अपने स्वरूप का वर्णन किया है और अपने को साकार और निराकार दोनों बतलाकर साकार और निराकार के झगडे की जड़ को न केवल हिला दिया है, बल्कि उसे उखाड़ ही फेंका है। कहा है – मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना । मैंने अपने अव्यक्त स्वरूप से इस समस्त जगत को फैलाया अर्थात व्याप्त किया है। मुझ में सब भूत स्थित हैं पर मैं उनमें स्थिर नहीं हूँ और मुझ में सब भूत नहीं भी हैं। देखो, (यह कैसी) मेरी ईश्वरीय करनी या योग सामर्थ्य है। भूतों को उत्पन्न करने वाला और उनका पालन करने वाला मेरा आत्मा ( यह बस करते हुए भी) उनमें नहीं है। इस विरोधाभासालंकार के द्वारा भगवान ने यह संकेत किया है कि मैं सगुण भी हूँ और निर्गुण भी– साकार भी और निराकार भी। मूढलोग मेरे परमस्वरूप को, जो कि सब भूतों को महान ईश्वर है, नहीं जानते। वे मुझे मानवशरीरधारी जानकर मेरी अवज्ञा करते हैं– अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रिता ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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