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इसके आगे राधावल्लभ जी का मन्दिर है। यह स्वामी श्रीहरिवंश जी के पूज्यदेव हैं (जो कि एक बडे़ प्रतापी महात्मा थे) इनके गुसाईं गौड़ ब्राह्मण हैं, जो अपना स्वतंत्र सम्प्रदाय बताते हैं। इसके पास सेवाकुंज है। इसमें रंगमहल है, जो श्रीराधाकृष्ण के नित्यविहार का स्थान है। यहाँ अब भी भगवान नित्य रासलीला करते हैं, इससे रात्रि में कोई नहीं रहने पाता। दिनभर रहने वाले बन्दर तक सायंकाल को अपने आप यहाँ से चले जाते हैं। यदि कोई छिपा रह जाता है तो या तो दूसरे दिन मरा हुआ मिलता है या मुमुर्षरूप में। इसके आगे श्रृंगारवट है, जहाँ श्रीराधाजी की बैठक तथा उनके चरणचिह्न हैं। पास ही साह विहारीलाल जी का बनवाया अतीव सुन्दर छोटे राधारमणजी का मन्दिर है। इससे आगे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के सम्प्रदाय श्रीराधारमणजी का मन्दिर है। यह श्रीराधारमण श्रीगोपाल जी भट्ट के पूज्यदेव थे। यह पहले शालग्राम रूप में थे। एक समय बिना जाने एक सेठजी बहुमूल्य वस्त्राभूषण की भेंट लेकर दर्शन के लिये आये, पर आकर इन्हें शालग्राम के रूप में देखकर उन्हें बड़ी निराशा हुई। उसकी निराशा को देखकर, उसे रात में स्वप्न दे, दूसरे दिन यह इस रूप में प्रकट हो गये और उसे भेंटदान का अवसर दिया।
इसके आगे रासमण्डल का चौतरा है और फिर उसके ओर केशीघाट है। जहाँ भगवान ने केशी दानव को मारा था। यहीं पर राजा महेन्द्र प्रताप का प्रेम महाविद्यालय है, इसी के पास धीर समीर है। इसके आगे दुर्वासा ऋषि का स्थल है और उसके आगे वंशीवट है जिसके नीचे खडे होकर श्रीश्यामसुन्दर वंशी बजाया करते थे। यहाँ ठाकुरजी और ठकुरानी जी के चरणचिह्न हैं। इसके पास वज्रनाभ के पधराये हुए गोपेश्वर महादेव का मन्दिर है। जिस समय भगवान ने शरद्पूर्णिमा के दिन महारास किया था उस समय स्वयं महादेवजी भी गोपी का रूप धारण करके उसकी शोभा का दर्शन करने पधारे थे। उन्हें देखते ही भगवान पहचान गये और बोले– ‘आईये, गोपेश्वरजी ! उस दिन से गोपेश्वर नाम से विख्यात होकर शिवजी यहीं बस गये। इनके दर्शन के बिना वृन्दावन यात्रा सफल नहीं मानी जाती। इसके पास ग्वालियर नरेश का बनवाया श्रीगिरधारी दास ब्रह्मचारी का मन्दिर है जिसमें हंस भगवान, सनकादि, नारदजी और श्रीराधाकृष्णजी के दर्शन होते हैं। यह ब्रह्मचारीजी भी सिद्ध थे। इसके आगे लालाबाबू का सुन्दर मन्दिर है, जिसमें श्रीकृष्णचन्द्र जी विराजते हैं और जिसके ऊपर चक्र सुदर्शन का चिह्न है।
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