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कृष्णांक
श्रीकृष्णोपदिष्ट संन्यास का स्वरूप
जहाँ तक मैं समझता हूँ, श्रीशंकराचार्य इसके अतिरिक्त और कोई समाधान कर भी नहीं सकते थे, किन्तु यह तो विचारणीय ही है कि यह श्लोक कर्म संन्यासियों को लक्ष्य करके कहा गया है अथवा कर्मयोगियों को। संन्यासियों को भी भिक्षाटन करना, उठना, बैठना, घूमना, शास्त्रों को पढ़ना-सुनना, उनके सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर करना और उनके विषय का चिन्तन करना (श्रवण, मनन, निदिध्यासन) इत्यादि कर्म और शरीर सम्बन्धी दूसरी क्रियाएं करनी ही पड़ती हैं। भगवान ने ठीक ही कहा है कि कोई भी पुरुष कर्म किये बिना नहीं रह सकता। सबको प्रकृति के गुणों के अनुसार कर्म करने ही पड़ते हैं (देखिये गीता 3।5)[1] प्रत्येक क्रिया संकल्प के द्वारा होती है और संकल्प के मूल में इच्छा होती है, जो स्वयं ज्ञान से उत्पन्न होती है[2] इसमें कोई सन्देह नहीं कि उपर्युक्त ज्ञान में– क्रिया का हेतु, उसके साधन, उसके बीच में आने वाले अन्तराय और उसका कर्ता, चाहे वह कर्म-संन्यासी हो अथवा और कोई, इन चार बातों का ज्ञान शामिल रहता है। यदि तत्वज्ञान और कर्म में परस्पर इतना विरोध है कि वे दोनों एक जगह नहीं ठहर सकते, जैसे अन्धकार और प्रकाश एक जगह नहीं ठकर सकते, तो यह बात कर्म-संन्यासी और कर्मयोगी दोनों के लिये लागू होनी चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:।।
श्रीशंकराचार्य सर्व: इस पद के साथ अज्ञ: (अज्ञानी) शब्द को अध्याहृत समझते हैं और कहते हैं कि यह श्लोक केवल अज्ञानियों को ही लक्ष्य करके कहा गया है, ज्ञानी कर्म संन्यासियों के लिये नहीं। किन्तु श्रीधरस्वामी इसका यह अर्थ नहीं करते। उन्हों ‘कश्चित’ शब्द से ज्ञानी-अज्ञानी (‘ज्ञान्यज्ञानो वा’) दोनों को लिया है। श्रीधर ने इस श्लोक का जो स्पष्ट अर्थ समझा है, वह मेरी समझ में शंकराचार्य के कर्म-सिद्धान्त का विरोधी नहीं है, क्योंकि वे भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि संन्यासियों को भी भिक्षाटनादि कर्म करने ही पड़ते हैं। - ↑ ज्ञानजन्या भवेदिच्छा इच्छाजन्या कृतिर्भवेत्। कृतिजन्या भवेच्चेष्टा चेष्टाजन्या क्रियोच्यते।।