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कर्ण ने बडे़ उत्साह और उद्योग से अव्यर्थ सर्पवाण मारा था, परन्तु रथ नीचा हो जाने से वह व्यर्थ हो गया। वाण इन्द्र के दिये हुए अर्जुन के दिव्य मुकुट में लगा, जिससे वह मुकुट पृथिवी पर गिरकर जल गया। भगवान ने अर्जुन को सचेत करके उड़ते हुए अश्वसेन नाग को भी मरवा डाला। यों बडे़ भारी मृत्युप्रसंग में अर्जुन की रक्षा हुई ।
9. महाभारत में पाण्डव विजयी हुए। छावनी के पास पहुँचने पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि ‘हे भरतश्रेष्ठ ! तू अपने गाण्डीव धनुष और दोनों अक्षय भाथों को लेकर पहले रथ से नीचे उतर जा। मैं पीदे उतरुंगा, इसी में तेरा कल्याण है। यह आज नयी बात थी, परन्तु अर्जुन भगवान के आज्ञानुसार नीचे उतर गया। तब बुद्धि के आधार जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण घोड़ों की लगाम छोड़कर रथ से उतरे, उनके उतरते ही रथ की ध्वजा पर बैठा हुआ दिव्य वान तत्काल अन्तर्धान हो गया ! तदनन्तर अर्जुन का वह विशाल रथ पहिये, धुरी, डोरी और घोड़ों समेत बिना ही अग्नि जलने लगा और देखते ही देखते भस्म हो गया। इस घटना को देखकर सभी चकित हो गये। अर्जुन ने हाथ जोड़कर इसका कारण पूछा, तब भगवान बोले-
अस्त्रैर्बहुविधैर्द्दग्ध: पूर्वमेवायमर्जुन ।
मदधिष्ठितत्वात् समरे न विशीर्ण: परन्तप ।।
इदानीन्तु विशीर्णोअयं दग्धो ब्रह्मास्त्रतेजसा ।
मया विमुक्त: कौन्तेय त्वय्यद्य कृतकर्मणि ।।[1]
हे परन्तप अर्जुन ! विविध शस्त्रास्त्रों से यह रथ तो पहले ही जल चुका था, मैं इस पर बैठा इसे रोके हुए था, इसी से यह अबसे पूर्व रण में भस्म नहीं हो सकता। हे कौन्तेय ! तेरा कार्य सफल करके मैंने इसे छोड़ दिया, इसी से ब्रह्मस्त्र के तेज से जला हुआ यह रथ इस समय खाक हो गया है। मैं पहले न रोके रखता या आज तू पहले न उतरता तो तू भी जलकर खाक हो जाता। भगवान की इस लीला को देख सुनकर सभी पाण्डव आनन्द से गदगद हो गये ।
10. महाभारत में तथा अन्य पुराणों में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जिनसे अर्जुन के साथ भगवान की अपूर्व मैत्री का परिचय मिलता है। यहाँ तो संक्षेप में बहुत ही थोडे़ से उदाहरण दिये गये हैं। इस लीला का आनन्द लेने की इच्छा रखने वालों को उपर्युक्त ग्रन्थ अवश्य पढ़ने सुनने चाहिये ।
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