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प्रसिद्ध अंग्रेज विद्वान बेकन (Bacon) ने एक जगह कहा है कि कुत्ते के लिये मनुष्य ही ईश्वर है और इसमें सन्देह नहीं कि जिस समय हम मनुष्य-जाति के हित के लिये कुत्तों तथा मेंढकों का शरीर चीरते हैं, उस समय वे हमें अन्यायी तथा नृशंस कहते होंगे। परमात्मा के तथा केवल परमात्मा की इच्छा की पूर्ति के ही साधन रूप पूर्ण मुक्त पुरुष के कार्यों के अनोचित्य के विषय में साधारण लोगों को शिकायत का उतना ही अधिकार है, जितना मेंढक को डाक्टर की क्रूरता पर आक्षेप करने का !पूर्ण पुरुष जो कुछ भी करता है, सोच समझकर करता है किन्तु वह अपने से निम्रावस्थवाले पुरुषों को अथवा उनको, जिनका वह वध करता है, सर्वदा अपना प्रयोजन नहीं बतला सकता। (बतला भी दे, तो कोई उसका तत्त्व समझ नहीं सकता, इसी से) उसकी यह बातें हमें क्रूरता पूर्ण अवश्य ही प्रतीत होती है, किन्तु (जैसा श्रीकृष्ण ने गीता के द्वितीय अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में कहा है- इन बातों को लेकर वे ज्ञानीलोग जीवित अथवा मृतक पुरुषों विषय में कभी शोक नहीं करते।
श्रीमती एनी बीसेण्ट ने अपनी धर्म का आधार (Basic of morality) नामक पुस्तक में इस प्रश्न की समीक्षा पाँच दृष्टियों से की है। वे धर्म का पश्वविध आधार मानती है- श्रुति (revelation) अन्तःकरण (conscience), उपयोगिता (utility), विकास (evolution), तथा योग (Mysticism)। इनमें से प्रथम चार आधारों पर जिस धर्म की स्थिति होती है, वह हमें इस सम्बन्ध में ठीक नहीं जँचता, अतः उसे हम इस समय अलग छो़ड़ देते हैं। धर्म का सबसे उँचा तथा सर्वोत्तम आधार योग है, जो सर्वसाधारण के लिये नहीं, किन्तु विशिष्ट व्यक्तियों के लिये ही उपयुक्त है। परमात्मा के साक्षत्कार का तथा अपने व्यष्टि-चेतन को समष्टि-चेतन के साथ मिला देने का नाम ही योग है। योगी सांसरिक नियम बनाने वालों के ठोस एवं स्थिर नियमों का अनुसरण नहीं करता, वह अपने ही विचित्र अनुभवों और निर्णयों का ही अनुसरण करता है, वह शास्त्रों की भी परवाह नहीं करता। बस, यही हमें योगेश्वर श्रीकृष्ण के चरित्र एक कुंजी मिल जाती है। उन्होंने अपने अन्तरात्मा में परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया था और अपने शरीर के यन्त्र एवं क्रियाओं को इतना नीरव बना दिया था कि उन्हें आत्मा की आवाज (voice of the spirit) के अतिरिक्त और कुछ सुनायी ही नहीं पड़ता था।
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