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श्रीकृष्णांक
प्रेम और सेवा के अवतार श्रीकृष्ण
भगवान का भी पृथक जीवन, पृथक भाव पृथक मनोवृत्तियाँ प्यारे व्रजवासियोंको सुखी एवं कृतार्थ करनेके लिये ही थीं। उन लोगों का आदर्श जीवन था, क्योंकि वे सब केवल श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये ही जीवन धारण करते थे। श्रीकृष्ण ही सबके प्राण थे। ज्यों ही माता यशोदा किसी दूसरी ओर ध्यान देना चाहतीं त्यों ही भगवान तुरन्त कुछ-ना-कुछ कौतुक करके उनका ध्यान अपनी ओर खींच लेते और इन सारी बातों का पर्यवसान अपार आनन्द में होता। श्रीकृष्ण अपनी माता को खिझाते और उन्हें अपने पीछे-पीछे गाँवभर में दौडाये फिरते। माता यशोदा ने भी एक दिन दाँव पाकर उन्हें रस्सी से बाँध दिया था। इसी प्रकार वे गोकुल के प्रत्येक घर में जाकर ऊधम मचाया करते, परन्तु उनका नटखट स्वभाव किसी को भी अखरता नहीं, उनकी लीलाएँ परिणाम में सदा ही सबके लिये सुखदायी होती थीं। जल में तरंगों की भाँति कहीं-कहीं भेद दिखायी 262 पड़ता, परन्तु वह आन्तरिक प्रेम का ही बाह्मरूप होता था और उसका परिणाम भी सबके लिये परम आनन्द की प्राप्ति होता था। श्रीकृष्णभक्तों के निर्दोष आनन्दमय भाव-तरंगों में दोष की भावना ही नहीं करनी चाहिये। उन भक्तों की महिमा कौन बखान सकता है ? भगवान जब तक व्रज अथवा वृन्दावन में रहे, वे सबको एकता के सूत्र में बाँधने वाले तथा सारे विरोधों को आनन्द के महासागर में डुबा देने वाले सर्वोच्चे प्रेम में सराबोर रहे। यही नहीं, उनकी मधुर मूरति ही प्रेममयी थी। साक्षात प्रेम ही उनके साँचे में ढला हुआ था। यह मानो उन भावी महान कार्यों की तैयारी थी, जो उन्होंने मथुरा और द्वारका में किया था। इसीलिये श्रीशुकदेवजी ने ’एधितार्थ’ पद का प्रयोग किया है। इसीलिये सभी महात्माओं ने बड़ी भक्ति के साथ व्रज और उसके चराचर-निवासियों के निरतिशय आध्यात्मिक माहात्म्य को बतलाया है। इसी से ब्रह्माजी ने भक्तिपूर्ण शब्दों में व्रजरज के माहात्म्य का वर्णन किया है और वृन्दावन के कुंज्जों में तृण अथवा लता के रूप में भी जन्म लेने को अहोभाग्य समझा है[1]। ज्ञानिश्रेष्ठ उद्धवजी भी जिन्हें श्रीकृष्ण अपना ही स्वरूप समझते थे[2] इसी प्रकार की प्रार्थना की थी[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ब्रह्माजी कहते हैं-
तद्भूरिभाग्यमिह जन्म किमप्यटव्यां यद्गोकुलेअपि कतमाड़्घ्रिरजोभिषेकम् ।
यज्जीवितं तु निखिलं भगवान्मुकुन्दस्त्वद्यापि यत्पदरज: श्रुतिमृग्यमेव ।।(श्रीमद्भा. 10।14।34)इस भूमि पर, वृन्दावन में और उसमें भी गोकुल में जन्म होना ही परम् सौभाग्य है। क्योंकि यहाँ जन्म होने से किसी न किसी गोकुल निवासी की चरणरज सिर पर पड़ॅ ही जाएगी। ये गोकुलवासी इसलिये धन्य हैं कि श्रुतियाँ आजतक जिस ब्रह्मा की खोज कर रही हैं वहीं इनका जीवन सर्वस्व हो रहा है। - ↑ नोद्धवोअण्वपि मन्न्यूनो यद्गुणैर्नार्दित: प्रभू:। (श्रीमद्भा. 3।4।31)
भागवान कहतें हैं कि उद्धव मुझसे कुछ भी न्यून नहीं है। - ↑ परम ज्ञानी उद्धव ने वृन्दावन में तृण बनने की आकांक्षा की है जिससे वह गोपियों के चरण रेणुका का स्पर्श कर कृतार्थ हो जाय।
आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम्॥(श्रीमद्भा. 10।47।61)यही नहीं, उन्होंने गोपियों के पदरज की बारम्बार श्रद्धापूर्वक वन्दना की-वन्दे नन्दव्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णश:। यासां हरिकथोद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम्॥
(श्रीमद्भा. 10।47।63)उद्धव कहतें हैं- मैं नन्दव्रज की इअन सब स्त्रियोंके चरणरजकी बारम्बार वन्दना करता हूँ, इनके गाये हुए श्रीहरिगीत त्रिभुवन को पवित्र करने वाल हैं।