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श्रीकृष्णांक
प्रेम और सेवा के अवतार श्रीकृष्ण
अब प्रश्न यह होता है कि उनका वह कार्य क्या था और वे क्यों व्रज गये ? लोगों का कहना है कि उनके अवतार का तात्कालिक हेतु पृथ्वी का भार हरण करना था, क्योंकि माता पृथ्वी भगवान के पास जाकर रोयी थी[1] और उसने प्रार्थना की कि मेरे स्वार्थपरायण दस्यु-सन्तान मेरे लिये भाररूप हो रहे हैं, उनसे मेरा छुटकारा करा दीजिये। पृथ्वी ने अन्यत्र भी कहा है कि मैं सब कुछ सह सकती हूँ, किन्तु मिथ्यावादी मनुष्यों का भार नहीं सह सकती।[2] कुछ लोगों का यह कहना है कि भगवान ने धर्म अर्थात ईश्वर के सम्मुख ले जाने वाले कर्मों की स्थापना और दुष्टों का दमन करने के लिये जन्म लिया था।[3]यदि यही बात है तो इस उद्देश्य की सिद्धि के लिये वह व्रज क्यों गये ? श्रीशुकदेवजी उपसंहार के श्लोक के अगले दो शब्दों में इसका कारण बतला देते हैं,[4] वहाँ उनका उद्देश्य सिद्ध ही नहीं हुआ और भी विशाल हो गया, क्योंकि प्रेम ही सब सुधारों की जड़ है। भगवान ने पहले भी एक स्थल पर कहा है ‘शान्ति और प्रेम से जैसे सारे काम सिद्ध होते हैं वैसे आवेश अथवा क्रोध से नहीं होते’।[5]व्रज ही एक ऐसा स्थान था जहाँ प्रेम का पूर्ण साम्राज्य था। यह भूमि पृथ्वी पर उस दिव्य परमधाम का ही प्रतिरूपक है जो गोलोक के नाम से प्रसिद्ध है, जहाँ का जीवन सर्वथा शाश्वत और दिव्य है, क्योंकि वहाँ सर्वत्र प्रेम का पूर्ण प्रसार होने के कारण सारी अनेकताएँ स्वाभाविक ही एकता के रूप में परिणत हैं। व्रज में-जो पीछे हटकर वृन्दावन में चला आया था- छोटे-बड़े, ऊँच-नीच, बलवान-निर्बल, जड़-चेतन, स्त्री-पुरुष और बाल-वृद्ध आदि का कोई भेद नहीं था। सारा समाज प्रेम की ऐक्योपादक लहर में सराबोर था। प्रेम ही एक ऐसी शक्ति थी जो सर्वत्र पूर्णरूप से व्याप्त थी। यदि कहीं देखने में कुछ भेद भी प्रतीत होता था तो वह भी उस प्रेम की मधुरता को बढ़ाने में सहायक होता था। सारे प्रेम के केन्द्र भगवान श्रीकृष्ण थे। उनके प्रेम की वर्षा सभी पर समान रूप से होती थी। व्रजवासी मात्र का पृथक अस्तित्व, पृथक सम्पत्ति, पृथक भावना और पृथक वृत्ति केवल श्रीभगवान को प्रसन्न करने के ही लिये थी[6]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भूमिर्दृप्तनृपव्याजदैत्यानीकशतायुतै:। आक्रांता भूरिभारेण ब्रह्माणं शरणं ययौ ॥
गौर्भूत्वाअश्रुमुखी खिन्नाक्रन्दंती करुणं विभो:। उपस्थिताअंतिके तस्मै व्यसनं स्वसनं स्वमवोचत ॥(श्रीमद्भा 1।10।17-18) - ↑ न ह्यसत्यातपरोअधर्म इति होवाच भूरियम्। सर्वं सोढुमलं मन्ये ऋतेअलीकपरं नरम्(श्रीमद्भा.8।20।4)
- ↑ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥(श्रीमद्भगवद्गीता 4।8)
- ↑ जातो गत:पितृगृहाद् वज्रमेधितार्थ:........। (श्रीमद्भा. 9।24।66)
- ↑ न संरम्भेण सिध्यंति सर्वेअर्था: सांत्वया यथा:॥ (श्रीमद्भा. 8।6।24)
- ↑ यह बात वृन्दावन की एक प्रसिद्ध घटना से और भी स्पष्ट हो जाती है। कालीय दमन के समय जब भगवान एक बार कुछ निश्चेष्ट से दिखायी दिये, तब उनकी इस दशा को देखकर उनके प्यारे गोपबालक और उनकी गौएँ बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं थी।
तं नागभोगपरिवीतमदृष्टचेष्टमालोक्य तत्प्रियसखा: पशुपा भृशार्ता:।
कृष्णेअर्पितात्मसुहृदर्थकलत्रकामा दु:खानुशोकभयमूढधियो निपेतु:॥
तत्प्राणास्तन्मनस्कास्ते दु:ख्शोकभयातुरा:॥
आबालवृद्धवनिता: सर्वेअंग पशुवृत्तय:।(श्रीमद्भा.10।16।10,14,15)गोपगणों ने अपने प्रियतम श्रीकृष्ण को, जिनको वे अपना शरीर, पुत्र, कलत्र, मित्र और सारी अभिलाषाएँ अर्पण कर चुके थे, जब कालिय सर्प के शरीर में लिपट जाने के कारण निश्चेष्ट देखा, तब वे सब के सब अत्यन्त दुखी हो गये और दुख पश्चात् और भय से हतचेतन होकर जमीन पर गिर पडे।श्रीकृष्ण के अर्पित प्राण और मनवाले उन बाल, वृद्ध, नारी और गौ बैल, सभी की यह दशा हो गयी। गोपियों की तो कुछ विचित्र ही स्थिति थीं, वे अपने प्रियतम श्रीकृष्ण को सर्प के शरीर से लिपटे देखकर बडी ही व्याकुल हुई, उन्हें सारा संसार शून्य दिखायी देने लगा। 'शून्यं प्रियव्यतिहृतं ददृशुस्त्रिलोकम्।'(श्रीमद्भा. 10।16।20)कैसा दारूण दृश्य है? इस प्रकार श्रीकृष्ण ने क्षणभर की परीक्षा से यह जान लिया कि सारे गोकुल का जीवन केवल उन्हीं पर अवलम्बित है। 'इत्थं स्वगोकुलमनन्यगतिं निरीक्ष्य सस्त्रीकुमारमतीदु:खितमात्महेतो:॥'(श्रीमद्भा. 10।16।23)ब्रह्माजी ने भी कहा है- युद्धर्मार्थसुहृत्प्रियात्मतनयप्राणाशयास्त्वत्कृते। (श्रीमद्भा. 10।14।35)उन व्रजवासियों के धन, धाम, मित्र और प्रियजन, पत्नी, शरीर, पुत्र और प्राणतक तुम्हारे ही लिये है।