श्रीकृष्णांक
श्रीरासलीला का रहस्य
दस वर्ष की अवस्था तक पौगण्ड-लीला की और सोलह वर्ष की अवस्था तक कैशोर-लीला की। इसके अनन्तर यौवन-लीला का वर्णन है। श्रीपाद चक्रवर्तीजी ने ’रासलीला’ का आठ वर्ष की अवस्था में होना बतलाया है। अष्टम वर्ष पौगण्ड के अन्तर्गत होने पर भी बलवान के लिये उक्त अवस्था में ही कैशोर का भाव प्रकट हो जाता है। चान्द्रमास के हिसाब से यह लीला आश्विन शुक्ल पूर्णिमा में समझी जाती है तथा सौर-मास के हिसाब से कार्तिक-मास की पूर्णिमा में होती है। श्रीभागवत में शारदीय पूर्णिमा के दिन रासलीला का होना वर्णित है। यह रास प्रथम रास है और सर्वप्रधान है। इससे पहले प्रकट रासलीला का कोई प्रमाण कहीं देखने में नहीं आता। जिन व्रजगोपियों को साथ लेकर श्रीकृष्ण ने रासलीला की थी, उनके दो भेद देखने में आते हैं। एक सुहृद् पक्षा है और देसरी विपक्षा। इनमें पहली श्रीकृष्ण-मिलन की सहायिका थी और देसरी विरुद्धाचानिणी थी। पुरा महर्षय: सर्वे सण्दकारण्यवासिन: । किसी समय दण्डकारण्यवासी महर्षिगणों ने श्रीरामचन्द्रजी के सौन्दर्य को देखकर श्रीभगवान के साथ आत्मरमण करने की इच्छा प्रकट की। वे सब महर्षिगण व्रज में गोपी रूप से उत्पन्न हुए और उन्होंने श्रीकृष्ण की प्राप्ति इस ’रासलीला’ के समय पर की। इन नित्य सिद्ध और साधन-सिद्धाओं के भी चार भेद पाये जाते हैं- ‘श्रुतिचारी, ऋषिचरी, गोपकन्या और देवकन्या।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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