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भगवान श्रीकृष्ण चुपचाप सब सुन रहे थे, अब उन्होंने गम्भीर स्वर से दुर्योधन से कहा-
’अरे दुर्बुद्धि दुर्योधन ! तू मूर्खता से मान रहा है कि मैं यहाँ अकेला हूँ, इसीसे तू मुझे कैद करना चाहता है। तुझे मालूम नहीं है कि समस्त पाण्डव, सारे यदुवंशी और सूर्य, रुद्र, ब्रह्मा, वसु, देवता, महर्षि आदि सब यहीं है।’ इतना कहकर वे हँसे, इतने में ही उनके समस्त अंगों में बिजली के समान चमकते हुए ब्रह्मादि देवता छोटे-छोटे आकार में दीखने लगे, उनका शरीर बड़ा विशाल हो गया, उनके ललाट में से ब्रह्मा, वक्षःस्थल में से रुद्र, भुजाओं में से एक में बलदेवजी, दूसरी में से अर्जुन प्रकट हो गये। मुख से अग्नि निकलने लगी। अनन्त भुजाओं में आदित्य, साध्य, वसु, अश्विनीकुमार, अनन्त देवता और इन्द्र सहित उन्चासों वायु, विश्वेदेवता, यज्ञ और राक्षस आदि अपना-अपना रूप धरकर श्रीकृष्ण के अंगों में दीखने लगे। पाण्डव और यदुवंशी वीर उनकी पीठ में से उत्पन्न हो गये। चारों ओर सब छा गये। श्रीकृष्ण के दोनों नेत्र, नासिका, कर्ण आदि में से अग्नि की लपटें निकलने लगीं और रोम-कूपों से सूर्य की किरणें निकलने लगीं। भगवान के इस रूप को देखते ही सब चौंधिया गये। द्रोण, भीष्म, विदूर, संजय तथा तपोधन ऋषियों ने भगवत्कृपा से भगवान का यह स्वरूप देखा। अन्ध राजा धृतराष्ट्र के हाथ जोड़कर स्तुति करने पर भगवान ने उन्हें भी दृष्टि प्रदान की, जिससे वह भी भगवान के इस स्वरूप का दर्शन कर सके। इस प्रकार भक्तों को आनन्द देकर और कुचक्रियों को भय तथा आश्चर्य के सागर में डालकर भगवान वहाँ से विदा हो गये।
3. तीसरी बार भगवान श्रीकृष्ण ने अपना कालरूप विकराल विराट्स्वरूप रणक्षेत्र में गीता का उपदेश करते समय दिव्य दृष्टि सम्पन्न अपने सखा भक्त अर्जुन को दिखाया था, उस रूप का वर्णन गीता के एकादश अध्याय में बड़ा सुन्दर है, वहीं देखना चाहिये ! प्रसिद्ध होने से विशेष नहीं लिखा गया।
4. महाभारत- युद्ध के बाद पाण्डवों ने श्रीकृष्ण की सहायता से अश्वमेध-यज्ञ किया। तदनन्तर श्रीकृष्ण पाण्डवों से विदा लेकर द्वारका को लौटे। रास्ते में मरूभूमि में उन्हें महातेजस्वी गुरुभक्त उन्तडंक मुनि मिले। श्रीकृष्ण ने मुनि की पूजा की, बदले में मुनि ने भी श्रीकृष्ण का सत्कार कर उनसे कुशल पूछते हुए कहा कि ‘हे कृष्ण ! आप कौरवों को समझाने गये थे वह कार्य सफल हो गया होगा ? वे दोनों अब सुखपूर्वक होंगे ?’ इसके उत्तर में भगवान ने कहा- ‘मैंनें समझाने की बहुत चेष्टा की, भीष्म और विदूरने भी दुर्योधन को बहुत समझाया, परन्तु वह नहीं माना, इससे महान युद्ध छिड़ गया और दोनो पक्षों के प्रायः सब लोग मारे गये।
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