श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण के विराट-स्वरूप
पुत्रस्नेह से माताका हृदय उमड़ आया, उसने श्रीकृष्ण को गोद में उठा लिया और मुख चूमने लगी ! (श्रीमद्भागवत दशम स्कन्ध अध्याय 8) तव वाक्यानि दिव्यानि तथा तेषां च माधव! ’हे गोविन्द ! हे माधव ! हमारी इच्छा है कि हम लोगों के भाषणों को सुनें। आप चलिये, हम भी शीघ्र ही वहाँ पहूंचते हैं।’ इस प्रकार ऋषियों से बात करके श्रीकृष्ण रथ पर सवार होकर हस्तिनापुर की ओर चले। हस्तिनापुर में स्वागत की बड़ी तैयारी की गयी थी, परन्तु आपने कौरवों का दिखौआ स्वागत और भोजन स्वीकर न कर गरीब विदूर की झोपड़ी में पधारकर वहीं शाक-पात का भोजन किया। तदनन्तर कौरवों की राजसभा में जाकर विविध भाँति से दुर्योधन को समझाया, परन्तु दुर्योधन के मन पर कुछ भी असर न हुआ। उलटे उसने अपने कुचक्री साथियों से परामर्श कर श्रीकृष्ण को कैद करना चाहा। उसकी इस दूरभि सन्धि का पता लगने पर धृतराष्ट्र ने उसे रोका, परन्तु वह नहीं माना, तब महात्मा विदूरजी उससे बोले- रे दुर्योधन ! तू किसको कैद करना चाहता है ? अरे, जिन्होंने द्विविद, नरकासुर, आदि महाबली पशु और राक्षसों को मार डाला, जिन्होंने बचपन में ही पूतना, बकासुर, वृषभासुर आदि को मारकर तथा अँगुली पर गोवर्धन पहाड़ उठाकर व्रजकी रक्षा की थी, जिन्होंने महाबली चाणूर, केशी, कंस, जरासन्ध, दन्तवक्त्र, शिशुपाल आदि का वध कर डाला, जो वरूण और अग्नि को जीतने वाले हैं, जिन्होंने इन्द्र पर विजय प्राप्त कर ली, महासागर में शयन करते समय मधु-कैटभ नामक असुरों को मारा तथा दूसरे अवतार में वेदों का हरण करने वाले हयग्रीव का वध किया था, वे श्रीकृष्ण क्या तेरे बन्धन में आ सकते हैं ? तूने अभी गोविन्द को पहचाना नहीं है, याद रख, यदि तू महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण का अपमान करेगा तो जैसे पतंग अग्नि में पड़कर जल जाते हैं, वैसे ही तू भी अपने साथियों सहित संसार से उठ जायगा।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (महा. उद्योग पर्व 83)
- ↑ जो लोग वृन्दावन के और द्वारका के श्रीकृष्ण को दो समझते हैं और उन्हें भगवान नहीं मानते उन्हें श्रीविदूरजी के इन शब्दों पर ध्यान देना चाहिये। इनमें स्पष्ट रूप से वृन्दावन लीला और पहले के अवतारों की लीला का वर्णन है।
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