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उसने गर्व के साथ केशव से कहा- ‘अब तो मैं चल नहीं सकती। मैं जहाँ जाना चाहती हूँ, तुम मुझे उठाकर उस स्थान पर ले चलो।’ केशव ने उससे कहा-‘मेरे कन्धे पर चढ़ जाओ।’ वह ज्यों ही कन्धे पर चढ़ने को उद्यत हुई कि अकस्मात श्री कृष्ण अन्तर्हित हो गये। रास लीला तो स्मरणात्मिका है। अहा ! इस दुर्लभ श्री हरि स्मरण रूप साधन को ब्रह्मचर्य स्त्रियों के साथ मिलाकर वैष्णव कहीं कुमार्गगामी न हो जायँ, इसीलिये महाप्रभु ने काठ की बनी हुई स्त्री की मूर्ति देखने का भी निषेध किया है।अस्तु, गोपियों ने पद चिह्नों के सहारे श्री कृष्ण को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते एक जगह देखा कि उनकी वह सखी श्री गोविन्द के वियोग में बहुत ही कातर हो रही है। गोपियाँ उसको द्वारा पहले माधव से मान प्राप्त करने तथा फिर अपने अभिमान के ही कारण अपमानित होने की बात सुनकर बहुत ही विस्मित हुईं, उन्हें बड़ा ही आश्चर्य हुआ। न जाने कितने समय तक उन्होंने श्री कृष्ण का अन्वेषण किया, घर लौटने की बात किसी के मन में भी न आयी।
नाना प्रकार से श्रीकृष्ण को खोजती हुई उनकी चिन्ता करती-करती वे सब की सब पुनः श्री यमुना जी के किनारे आ पहुँचीं। यह कृष्णन्वेषण पूर्णिमा की रात को नहीं हुआ। क्योंकि जब तक चाँदनी थी, तब तक तो सभी वन-वन भटक रहीं थीं। अँधेरा होते ही वे ढूँढ़ना छोड़कर यमुना तट पर आयी थीं। यहाँ सब मिलकर श्री कृष्ण का गुणगान करने लगीं। श्री भगवान का गुणगान सुनते-सुनते ही तो श्री कृष्णानुराग उत्पन्न होता है। व्रजाअंगनाओं के मुख से होने वाला श्रीकृष्ण का गुणगान फिर कहाँ मिलेगा ? इस घोर संसार-अरण्य में जिनके पवित्र नाम का उच्चारण अत्यन्त ही अभय प्रद है, जिनके चरणों की शरण लेते ही मनुष्य अत्यन्त पवित्र हो जाता है, निर्भय हो जाता है, उनका गुण कीर्तन श्रवण करते-करते ही मनुष्य की गाति हो जाती है, आज गोपियाँ वही यशो कीर्तन कर रही हैं।कृष्ण कंगाअलिनी व्रज गोपियाँ श्री कृष्ण के विरह में पागल होकर विलाप करने लगीं। कहने लगीं। कहने लगीं कि- ‘हे कान्त ! तुम्हारे जन्म और कर्म से व्रज में सभी सुखी हैं, सभी श्रीमान हैं और सभी श्रीमती हैं। तुम्हारे ही लिये हम प्राण धारण करती हैं, तथापि तुम दिखलायी नहीं देते।
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