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कैसा गरम ईख का चूसना है यह ? वन में इधर-उधर भ्रमण करते-करते उन्होंने एक स्थान पर श्री कृष्ण-चरणों के ध्वज वज्राअंकुश चिह्न देखे, वे पद-चिह्नों के सहारे कुछ दूर आगे बढ़ीं। आगे चलकर देखती क्या हैं कि श्री कृष्ण के साथ ही किसी और गोपी का भी पदचिह्न है। गोपांगानाएँ परस्पर कहने लगीं- ‘यह चरण चिह्न किसका है ? हस्तिनी के समान कौन कामिनी श्री नन्दनन्दन के चरणों का अनुसरण करती है ? अहा ! वह कैसी भाग्य-शालिनी है। वह निश्चय ही मन, वचन और कर्म से श्री हरि का स्मरण कर उनकी प्रसन्नता का अनुभव करती है ! अवश्य ही श्री कृष्ण उसके ऊपर प्रसन्न हैं ! नहीं तो हम सबको परित्याग कर केवल उसे ही लेकर श्री गोविन्द निर्जन वन में क्यों जाते ? देखो, देखो, अब भी श्री गोविन्द के पद चिह्न दीख पड़ते हैं। अहा ! यह पदरज अत्यन्त पवित्र है ! ब्रह्मा, महेश्वर और लक्ष्मी पाप नाश के लिये इस पदरज को मस्तक पर चढ़ाते हैं। आओ, आओ, हम सब इस परम पुण्य प्रद चरण रेणु में स्नान करें। किन्तु इस कामिनी का चरण चिह्न हमारे हृदय में क्षोभ उत्पन्न करता है। वह हम लोंगो से छिप कर अच्युत के साथ आन्नद कर रही है। देखो, देखो, यहाँ तो अब उसका पद चिह्न नहीं दीख पड़ता। जान पड़ता है कि प्रियतमा के चरणतल को तृणा अंकुर से विक्षत होते देखकर प्रिय श्री गोविन्द उसे उठाकर ले गये हैं।
देखो, देखो, श्री कृष्ण ने उसको उधिक दूर तक न ले जा सकने के कारण यहाँ पर उतार दिया है। इसी से उनका पद चिह्नों यहाँ गहरा हो गया है। इसी प्रकार चरण चिह्नों कों देखती हुई गोपियाँ विगत-चेतन हो पागल भाँति वन-वन घूमने लगीं। श्री जय देव का- ‘भ्रमन्ती कान्तारे बहुविहितकृष्णानुसरणाम्’ इसी प्रकार का है। परन्तु श्री कृष्ण तो आत्माराम हैं। वे अपने साथ आप ही क्रीड़ा करते हैं। स्त्रियों का विभ्रम क्या उन्हें आकर्षित कर सकता है ? तथापि कामी पुरुषों की दीनता और स्त्रियों की दुरात्मता को दिखलाने के लिये उन्होंने प्रेयसी के संग क्रीड़ा की थीं। यह व्यावहारिकी लीला वास्तवी लीला के भावना आस्वादन कराने के लिये है। अस्तु।श्री कृष्ण सबका परित्याग करके जिसको साथ लेकर वन में गये थे, उसके हृदय में जब यह भाव आया कि केशव भी सबका, परित्याग कर केवल मुझे ही भजते हैं तो निश्चय ही मैं सब में श्रेष्ट हूँ- इस भावना के बढ़ते-बढ़ते उसे गर्व हो आया।
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