श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण-चरित्र
हे विदुरजी ! धर्मपुत्र युधिष्ठिर से भगवान ने तीन अश्रवमेध-यज्ञ कराये और युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण के अनुगत होकर भाइयों सहित पृथ्वी का पालन किया। विश्वआत्मा भगवान ने भी लोक-वेद के अनुसार आचरण करते हुए द्वारिकापुरी में अनेक भोग भोगे, किन्तु सांख्ययोग के ज्ञान से उन विषयों में कभी लिप्त नहीं हुए। आपने प्रेमभरी मुसकान, मृदुदृष्टि, अमृतसम मधुरवाणी, शुद्ध चरित्र और श्रीयुत शरीर से मनुष्यलोक, देवलोक और यादवों को भलीभाँति रमाते हुए स्वयं क्षणस्थायी सुहृद्भाव से युक्त होकर समस्त रानियों को आनन्द दिया। हे विदुर ! इस प्रकार बहुत वर्षोंतक लीला करते-करते लीला से ही गृहस्थाश्रम और विषयानुराग में श्रीकृष्णचन्द्र को वैराग्य उत्पन्न हुआ। जब निजाधीन कामादि-भोगों में स्वयं भगवान को वैराग्य हुआ तो दैवाधीन भोगों में अन्य पुरुषों को आसक्त रहना कदापि उचित नहीं है, सबको योगेश्वर श्रीकृष्ण का अनुकरण करना उचित है। हे विदुर ! एक बार द्वारिका में खेलते हुए यादववंशी बालकों ने हँसी करके ऋषियों को कुपित किया। तब भगवत् की इच्छा जानने वाले ऋषियों ने यादवों को शाप दिया। कुछ महीनों बाद दैवमोहित यादव सूर्यग्रहण के पर्व में रथों पर आरूढ़ होकर प्रभासक्षेत्र को गये। वहाँ उन्होंने स्नान, दान, पितृ, देवता, ऋषियों का तर्पण करके ब्राह्मणों को बहुगुणयुक्त गौएँ दी और बहुत प्रकार का अन्न, वस्त्र और सुवर्ण श्रीकृष्णार्पण करके दान दिया। पश्चात वे यादव वारूणी नाम की मदिरा पीकर मतवाले हो परस्पर युद्ध करके इस प्रकार मर गये, जैसे बाँसों की रगड़ से उत्पन्न हुई अग्नि से बाँसों का वन जल जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |