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हे विदुर ! एक बार भगवान प्रभास क्षेत्र में मुनियों के दर्शन करने गये अथवा यों कहना चाहिये कि मुनियों को दर्शन देने गये, तब मुनियों ने उनसे उनकी कुशल पूछी, इस पर सनत्कुमार कहने लगे—
सनत्कुमार— हे मुनियों ! तप का शाश्वत फल चाहने वाले आपका कल्याण हो, श्रीकृष्ण तो कल्याण के बीज ही हैं, उनसे कुशल-प्रश्न करना व्यर्थ है। इस समय परमात्मा के दर्शन से आपका कुशल है, भगवान तो प्रकृति से पर देहवाले हैं, निर्गुण हैं, निरीह हैं, सबके बीज हैं, चित-स्वरूप पृथ्वी का भार उतारने के लिये इस समय आविर्भूत हुए हैं, इसलिये उनसे कुशल पूछना निरर्थक है।
सनत्कुमार ये वचन सुनकर भक्तभावन भगवान मुनियों का अनादर न सके और उनका पक्ष लेकर इस प्रकार कहने लगे—
श्रीकृष्ण— हे विप्र ! शरीरधारियों की कुशल पूछना ठीक नही ही हैं, फिर मुनियों का मुझसे कुशल-प्रश्न करना क्यों नहीं बनता ?
सनत्कुमार—हे नाथ ! प्राकृत-शरीर में शुभ-अशुभ सर्वदा होते हैं, क्षेम के बीजरूप नित्य देह में कुशल-प्रश्न निरर्थक है।
श्रीभगवान—हे विप्र ! जो देहधारी है, वह प्राकृतिक ही समझा जाता है, उस नित्य प्रकृति के बिना कोई देह विद्यमान नहीं है।
सनत्कुमार—हे प्रभो ! रक्त और विन्दु से उत्पन्न हुए देह प्राकृतिक समझे जाते हैं, सबके बीज प्रकृतिनाथ का शरीर प्राकृत कभी नहीं हो सकता। आप सबके बीज, सबके आदि, स्वयं भगवान हैं, सब अवतारों में प्रधान हैं, अव्यय बीज हैं। हे प्रभो ! परम परमात्मा, ज्योतिस्वरूप, ईश्वर को वेद नित्य-नित्य और सनातन कहते हैं। परम निर्गुण माया के ईश्वर के वेदान्त और वेदवेत्ता माया करके सगुण कहते हैं।
श्रीकृष्ण—इस समय तो मैं भक्त–वीर्य के आश्रित शरीर वाला वासुदेव हूँ, हे विप्र ! प्राकृत में कुशल-प्रश्न क्यों नहीं बनता ?
सनत्कुमार— नहीं, जिसके रोमों में विश्व–ब्रह्माण्ड भरे हैं, जो सर्वत्र बसा हुआ है और जो सर्व का नवास है, वह परब्रह्म देव का नाम वासुदेव हे, ऐसा चारों वेदों में, पुराणों में, इतिहासों में और प्रस्थानों में देखने में आता है। समस्त वेद में रक्त-वीर्य के आश्रित देह-निरूपण किया है। मेरे इस वचन के इस समय मुनि साक्षी हैं। वेद, सूर्य और चन्द्र भी साक्षी हैं, क्योंकि धर्म सर्वत्र ही है।
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