श्रीकृष्णांक
साक्षात परब्रह्म का आविर्भाव
यद्यपि यह पूर्वोक्त स्वरूप निर्वचन बहुत सूक्ष्म है तथापि यदि इतने ही स्वरूपनिर्वचन में प्रमाणों का समन्वय हो जाय तो स्वरूपनिर्वचन पूर्ण हो जाता है। प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द, इन तीन प्रमाणों में से आस्तिकों के लिये ब्रह्मविवेचना या श्रीकृष्णावतार-निर्णय में शब्द प्रमाण ही सर्वोत्तम है और शब्द प्रमाण में भी वेद ही सर्वोत्तम माना गया है। श्रीकृष्ण के पूर्वोक्त स्वरूपनिर्वचन में यदि वेद के प्रमाणों का समन्वय हो सकता हो तो फिर श्रीकृष्णावतार का स्वरूप निर्वचन पूर्ण हो जाता है और फिर किसी आस्तिक के हृदय में श्रीकृष्ण के परब्रह्मपुरूषोत्तम होने में सन्देह नहीं रह जाता। ʻस एवाधस्तात् स उपरिषृात् स पश्चात् स पुरस्तात् स दक्षिणत: स उत्तरत: स एवेदं सर्वम्।ʼ इत्यादि श्रुतियाँ परब्रह्म को सर्वव्यापक कहती हैं। अब यदि श्रीकृष्ण भी सर्वव्यापक ठहर जायँ तो श्रीकृष्ण ही परब्रह्म हैं यह सिद्ध हो जाय। श्रीकृष्ण के स्वरूप का निरूपण करने वाले ग्रन्थ हैं, श्रीगीता और श्रीभागवत। ये दोनों ही ग्रन्थ आस्तिकों को परम माननीय हैं। इन दोनों ग्रन्थों में श्रीकृष्ण को सर्वव्यापक कहा है। श्रीगीता के सप्तमाध्याय में कहा है कि, ʻमयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।ʼ नवमाध्याय में ʻमया ततमिदं सर्वम्ʼ तथा ʻसर्वाणि भूतानिमत्स्थानीत्युपधारयʼ कहा है। दशमाध्याय में कहा है कि ʻअहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित: ʼʻविषृभ्याहिमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।ʼ ग्यारहवें अध्याय में कहा है ʻतत्रैकस्थं जगत्कृत्सनंप्रविभक्तमनेकधा। अपश्यदेव देवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा।ʼ ʻद्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्रच सर्वा:।ʼ ʻसर्वं समाप्रोषि ततोऽसि सर्व:ʼ इत्यादि। श्रीभागवत में श्री स्पष्ट कहा है कि ʻभवान्हि सर्वभूतानामात्मा साक्षी स्वदृग् विभो।ʼ यर्हीदं शक्तिभि: सृषृाप्रविषृो हृात्मसत्तया।ʼ ʻअन्तर्हृदि भास्यखिलात्मनाम्।ʼ[1] इत्यादि। व्यापक होने से भी श्रीकृष्ण परब्रह्म हैं। ʻस उत्तम: पुरुष:ʼ[2] यह श्रुति परमात्मा को पुरुषोत्तम कह रही है। अब यदि शास्त्र के द्वार श्रीकृष्ण ही पुरुषोत्तम ठहर जायँ तो श्रीकृष्ण परब्रह्म हैं यह स्वत: सिद्ध हो जाय। भगवदगीता के सातवें अध्याय में आप स्वयं आज्ञा करते हैं ʻमत्त: परतंर नान्यत्किचिदस्ति धनंजय।ʼ और 15 वें अध्याय में तो स्पष्ट कह दिया है ʻयमात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम:। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम:।ʼ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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