श्रीकृष्णांक
साक्षात परब्रह्म का आविर्भाव
अग्नि की ज्वाला स्वयं मूल अग्नि ही है किन्तु प्रकट है और किसी को आधार न बनाकर प्रकाशित हो रही है, इसलिये वह मूलाग्निन का आविर्भाव है। परमकाष्ठापन्न वस्तु परात्पर परब्रह्म निर्गुण पुरुषोत्तम अपने सर्व धर्म और सर्व शक्ति, परिवार सहित अपनी इच्छित भूमि और अधिकारियों के सब तरह के आवरणों को हटाकर माया को साथ लेकर स्वयं प्रकट हुआ है वह श्रीकृष्ण का आविर्भाव है, श्रीकृष्णावतार है। अवतार पृथक है, आवेश भिन्न है और आविर्भाव भिन्न वस्तु है किन्तु सर्व में प्रवृत्ति-निमित्त जो ʻअवतरणम्, वैकुण्ठादत्रागमनम्ʼ उतरना, वैकुण्ठ से लोक में उतर आना (सबकी समझ में आ जाना) वह एक ही है, इसलिये लोक में इन तीनों की अवतार शब्द से ही प्रसिद्धि है। ʻतद्धाम परमं ममʼ गीता के भगवद्वाक्य के अनुसार, वैकुण्ठ जो अक्षरब्रह्मधाम है वह सर्वत्र व्याप्त है और उसी अपने नित्यधाम में श्रीपुरुषोत्तम सर्वदा विराजते हैं किन्तु गुप्त हैं, जब उनको सबके प्रकाश में आना ईप्सित होता है तब वे पूर्वोक्त रीति से सबकी दृष्टि में आने लगते है, वही उनका ʻअवतरणम्, वैकुण्ठादत्रागमनम्ʼ है और वही आविर्भाव है। श्रीकृष्णावतार की विवेचना के चार विभाग हैं। स्वरूप, माहात्म्य, लीला और विरोधपरिहार। हमें भी इस श्रीकृष्णावतार के विषय में ये चारों विवेचनाएँ करनी हैं। स्वरूप का सूक्ष्म विवेचन तो हम पूर्व में कर चुके हैं, किन्तु अभी पूरा विवेचन करना है। स्वरूप विवेचना में दो विभाग हैं। एक स्वरूप निर्वचन और दूसरा प्रमाण समन्वय। प्रमाण समन्वय के बिना प्रमेय (ज्ञेय वस्तु)- की यथार्थ सिद्धि होना कहा नहीं जा सकता। श्रीकृष्णावतार साक्षात् परब्रह्म है क्योंकि वह व्यापक है, पुरुषोत्तम ही है, सर्वकर्ता है, अप्रमेय आनन्दरूप ही है, निर्गुण ही है, निर्गुण ही हे, आनन्दाकार ही है, अप्राकृत ही है, सर्वशक्ति विशिष्ट है, अंशकलापूर्ण है, सर्वोद्धारप्रयत्नात्मा है, निर्दोष है, पूर्ण कल्याणगुण है और माया को साथ लेकर प्रकट हुआ है, यह स्वरूप- निर्वचन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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