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हाय, बड़े निष्ठुर जान पड़ते हो, मुकुन्द ! तुम्हें क्या हो गया है ? तुम तो ऐसे नहीं थे। कृष्ण ! तुमने यह कठोरता कहाँ से पायी ? तुम तो बार-बार गालों में गोपियों के गुलचे खाकर भी वहाँ दौड़-दौड़ पहुँचते थे, तोले-तोले माखन के लिये उनकी खुशामद करते थे, उनके चोचलों के चक्कर में फँसकर तरह-तरह की तकलीफें सहते थे और तब भी सफल मनोरथ न होने से दब औचट चुपके से उनके घर में घुस जाते थे, और आहिस्ते से हांडी से हाथ में मक्खन निकाल दबे पांव भाग आते थे। पर आज तुम्हें बुलाते-बुलाते थक गया, और तुम इधर ताकते तक नहीं ? क्या बात है, गोपीवल्लभ ?
पतितोद्धारक, प्रियतम ! अवश्य आओ, मेरा उद्धार करो, मैं तुम्हें सर्वस्व दान करना चाहता हूँ। तुम्हारा दास रहना चाहता हूँ, अपना कुछ नहीं रखना चाहता। देखो न, अपना यह सारा संग्रह तुम्हें सौंपने का संकल्प किये बैठा हूँ, पर विद्रोही शक्तियां अड़चन डालने से नहीं चूकने वाली, इसलिये तुम बस एक बार आ जाओ। सब काम बन जायगा।
अभी जो मन, प्राण, शरीर सब मशीन की मशीन ही बिगड़ी हुई है, तुम्हारे आते ही वह दुरुस्त हो जायगी। पुर्जे समझदार बन जायंगे। तुम्हारे पधारते ही शान्ति छा जायेगी। समस्त अंग शुद्धरूप से आकर अपने अपने कार्य में लग जायेंगे। तम जब भोजन करते होंगे, तब यह शरीर अपनी शरारत छोड़कर अपने अंग-उपांगों के साथ तुम्हारी सेवा के लिये सदा तुम्हारे सामने रहेगा। प्राण प्रमाद त्यागकर हर्ष की हेशमी और उल्लास के रसगुल्ले परम प्रेम से परोसेगा। मन मौज के साथ मना-मनाकर तुम्हें खिलायेगा। बुद्धि बीच-बीच में विशुद्ध विनोद करती जायेगी, तब चित्त की भी चतुराई देखते ही बनेगी। अहंकार अपनी ऐंठ छोड़कर तुम्हारे आदर में ही आनन्द-लाभ करेगा। मोहन ! आओ, बड़ा मजा आयेगा, मैं धन्य हो जाऊँगा, तुम्हारी एक बार भी विधिवत पूजा कर लेने से मेरा रास्ता साफ हो जायगा। जो शक्तियां अभी हम दोनों को दूर-दूर करती हैं, वे ही हमारे मिलने के साधन बन जायँगी। तुम्हारी पूजा की सामग्री बन जायँगी !
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