कन्हाई से प्रेम कैसे करें 2

कन्हाई से प्रेम कैसे करें?

श्रीसुदर्शन सिंहजी 'चक्र'

इस अविधिपूर्वक पूजन का ही फल होता है - ‘देवान देवयजो यान्ति।’ देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को ही प्राप्त होते हैं।

इस प्रेम के प्रसंग में इतनी भारी-भरकम बात के प्रारम्भ का प्रयोजन है। प्रेम किया ही केवल कन्हाई से जाता है। कन्हाई को छोड़ कर अन्य किसी से प्रेम किया ही नहीं जा सकता और कन्हाई तो है ही प्रेम करने के लिये।

आप इस श्याम सुन्दर से प्रेम करते हैं। चौंकिये मत, ऐसा कोई प्राणी संसार में नहीं है, जो प्रेम न करता हो। सबका किसी-न-किसी से प्रेम है। दूसरे किसी से नहीं होगा तो अपने शरीर से होगा; किंतु यह भ्रम है कि दूसरे से प्रेम किया जा रहा है। जैसे दूसरे देवताओं के भक्त समझते हैं कि वे उन-उन देवताओं का भजन कर रहे हैं, वैसे ही लोग भी इस भ्रम में ही हैं कि वे तन, धन, स्त्री-पुत्र या पद-प्रतिष्ठा से प्रेम करते हैं। प्रेम तो वे कन्हाई से ही करते हैं, किंतु अविधि पूर्वक करते हैं। दूसरे माध्यमों से करते हैं। इस अविधि पूर्वक प्रेम के कारण - प्रेमास्पद की भ्रान्त धारणा के कारण भवाटवी में भटक रहे हैं। अन्यथा -

प्रेम हरी कौ रूप है, त्यौं हरि प्रेम सरूप।

प्रेम तो कन्हाई का रूप है। कन्हाई ही प्रेम है।

प्रेममयी श्रीराधिका, प्रेम सिन्धु गोपाल।
प्रेमभूमि वृन्दाविपिन, प्रेम रूप ब्रज बाल।।

आपको कन्हाई से प्रेम करना है, अतः यह जान लें कि प्रेम किया नहीं जाता, प्रेम होता है - हो जाता है। यह प्रेम कहीं आकाश से टपका नहीं करता। यह आपके हृदय में है। पहले यह देखिये कि ‘आपकी प्रीति कहाँ है। संसार में प्रीति स्थिर और अनन्य नहीं होती। वह बिखरी-बिखरी रहती है। हृदय की रागात्मिका वृत्ति का नाम ही प्रेम है और जब संसार में राग होता है, तब उसमें दो दोष अवश्य आ जाते हैं - 1. वह बिखर जाता है। अनेक-से होता है। कुछ तन से, कुछ धन, कुछ मान-प्रतिष्ठा से, कुछ एक सम्बन्धी से और कुछ दूसरे से, 2. वह स्थायी नहीं होता। जहाँ स्वार्थ या सम्मान पर आघात लगा या आघात लगने की शंका हुई, उसे द्वेष में परिवर्तित होते भी देर नहीं लगती।’


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