श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भगवत्प्रेम की प्राप्ति का साधन-उत्कट चाहश्रीभगवान के प्रेम की प्राप्ति बहुत ही दुर्लभ होने पर भी भगवत्कृपा से उसी को हो सकती है और सहज ही हो सकती है, जो वास्तव में उसे चाहता है। चाहता वही है, जो प्रेम के मूल्य में सर्वस्व अर्पण करने को तैयार है- यद्यपि भगवत्प्रेम किसी कीमत पर नहीं मिलता; क्योंकि वह अमूल्य है। ‘कैवल्य’ की कीमत भी उसे खरीदने के लिये पर्याप्त नहीं है। यों कहना चाहिये कि भगवत्प्रेम खरीदा ही नहीं जा सकता। वह उसी को मिलता है, जिसको कृपा करके भगवान देते हैं और देते उसको हैं जो सर्वस्व उनके चरणों पर न्योछावर करके भी अपने प्रेम का अपात्र मानता है और पल- पल में प्रेमस्पद प्रभु के प्रेम पर मुग्ध होता रहता है। प्रेम न तो किसी भी उपाय से मिलता है और न उसके लिये समय की ही शर्त है। प्रेम के मार्ग में किसी भी शर्त के लिये गुंजाइश नही है। यहाँ तो बिना शर्त का समर्पण है। सब कुछ दे डाले, तन-मन अर्पण कर दे। मुरली की भाँति प्रेम-तत्त्व हृदय को शून्य कर दे और बदले में कुछ भी न चाहे। चाहे तो यही चाहे कि ‘इस शून्य हृदय का भी उस प्रेमास्पद को पता न लग जाय; क्योंकि शून्य होने पर भी यह प्रेम के योग्य नहीं है। उसका पवित्र प्रेम यहाँ आयेगा, इस हृदय में उसका प्रवेश होगा तो इस प्रेम की प्रतिष्ठा ही घट जायगी। प्रेम के लिये सर्वथा अयोग्य मुझको प्रेम न देने में प्रभु के प्रेम की शोभा है, परंतु वह परम प्रेमास्पद इतने पर भी न जाने क्यों मुझसे प्रेम करता है। क्या वह स्वयं अपनी प्रेम प्रतिष्ठा भूल गया है, जो मुझ-सरीखे त्याग की स्मृति रखने वाले त्यागाभिमानियों की ओर निरन्तर प्रेमदृष्टि से देखता है और मुझमें भी प्रेम का अस्तित्व मानता है।’ स्वाभाविक ही सर्वार्पण के पश्चात् जब इस प्रकार का भाव होता है, तब भगवान के प्रेम का पवित्र प्रादुर्भाव हृदय में होता है। प्रेम तो प्रत्येक जीव के अन्तर में भगवान् का दिया हुआ है ही, वह विषयानुराग के दृढ़ और मोटे आच्छादन से आवृत है- विषयासक्ति, ममता और अंहकार के काले पर्दे से ढका है। इस आवरण और आच्छादन के हटते ही वह निर्मल और पवित्र रूप में प्रकट हो जाता है। यह प्राकट्य ही प्रेम का उदय है। अतएव जब तक विषयासक्ति, ममता और अंहकार दूर न हों, तब तक भगवान् के गुण-माहात्म्य, सौन्दर्य-माधुर्य, कारुण्य आदि के श्रवण-मनन से विषयासक्ति को, परम आत्मीय भाव के निरन्तर अनुचिन्तन और निश्चय से विषय-ममत्व को और शरणागति के भावको अहंकार को हटाते और मिटाते रहना चाहिये। साथ ही भगवच्चिन्तन का सतत अभ्यास करना चाहिये। |
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